पूर्णयोगी बनने की कला जो कर्मरत् है वह संन्यासी नहीं जो संन्यासी है वह कर्मरत् नहीं।
‘कर्म’ और ‘संन्यास’ दो अलग मतलब रखनेवाले उपरोक्त पंक्तियों की तरह देखे जाते हैं। जैसे लोग अपनी सांसारिक जिम्मेदारियों को छोड़कर सोचते हैं कि हमने कर्मों का त्याग कर दिया और वे खुद को संन्यासी घोषित कर, संसार से पलायन कर जाते हैं। लेकिन गीता के पाँचवें अध्याय में श्रीकृष्ण उन लोगों की गलतफहमी दूर करते हुए घोषणा करते हैं कि वास्तव में कर्मयोग और संन्यासयोग अलग नहीं हैं बल्कि एक दूसरे के पूरक हैं।
कर्म और संन्यास का जिस बिन्दु पर मिलन होकर कर्मसंन्यासयोग बनता है, उस बिन्दु पर स्थापित हुआ इंसान पूर्णयोगी बनता है। प्रस्तुत पुस्तक आपको इसी रहस्य से अवगत कराते हुए बताती है कि
* कर्म और संन्यास एक कैसे हो सकते हैं?
* कर्मयोग और संन्यासयोग की जो एक ही मंज़िल है, वह क्या है?
* योगी (ईश्वर से योग करनेवाले) कितने प्रकार के होते हैं?
* पूर्णयोगी किसे कहा जाता है?
* पूर्णयोगी बनने की युक्ति क्या है?
तो आइए, इस पुस्तक में दी गई गीता की महत्वपूर्ण समझ को आत्मसात् कर, हम भी पूर्णयोगी बन, परमात्मा से अमरात्मा का योग करें और अपना कर्मसंन्यासयोग सफल करें।
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