विकारों से युद्ध का एलान-ए-जंग सबसे बड़ी कृपा स्वयं ‘कृपा’ है
गीता, श्रीकृष्ण ने अर्जुन के लिए कही मगर अर्जुन के बहाने हमें भी उस ज्ञानामृत को पीनेे का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जिसे श्रीकृष्ण ने अति गोपनीय बताया है। यह कृपा नहीं तो और क्या है कि बिना प्रयास के भी हम पर इस अद्भुत सर्वोच्च ज्ञान की वर्षा हुई। यदि कोई पूछे- ‘ईश्वर की सबसे बड़ी कृपा क्या है?’ तो इसका जवाब होगा- ‘सबसे बड़ी कृपा, स्वयं ‘कृपा’ है’, जो उन सभी पर हुई है, जिन्होंने गीता को पढ़ा, समझा, उस पर मनन कर जीवन में उतारा।
पुस्तक का प्रस्तुत भाग गीतांत यानी गीता का अंतिम अध्याय है, जिसमें श्रीकृष्ण ने पिछले 17 अध्यायों में दिए ज्ञान के विस्तार का सार दिया है। पूरी गीता को पढ़ने-समझने के बाद इस अध्याय का रिविज़न करने से आप समस्त गीता पर एक साथ मनन कर सकते हैं। इसमें निम्नलिखित बातों का पुनःस्मरण कराया गया है-
* संन्यास, त्याग, ज्ञान, भक्ति आदि क्या हैं?
* कर्म और कर्ता कौन है और कितने प्रकार के होते हैं?
* कर्म स्वभाव और वर्ण व्यवस्था का क्या रहस्य है, अपने स्वभाव अनुसार कर्म करना क्यों ज़रूरी है?
* सांख्ययोग में कैसे स्थापित हों?
* कर्मयोग का सार क्या है और उसे कैसे धारण करें?
* सच्चे भक्त के क्या गुण हैं?
* गीता ज्ञान पाने की पात्रता क्या है?
श्रीकृष्ण के मुख से निकले इन सभी ज्ञान वचनों को जीवन में धारण कर आइए, हम भी अर्जुन की तरह अपने अज्ञान का चोला उतारकर, सच्चे कर्मयोगी बनें और अपने विकारों से युद्ध का एलान करें, श्रीकृष्ण को अपना सारथी बनाते हुए। विजय आपकी होगी!
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