भोग और दमन के बीच का मार्ग
आत्मसंयम का अर्थ है- स्वयं पर संयम। यह बेहोशी या कठोरता से नहीं बल्कि पूरी समझ, होश एवं ईमानदारी के साथ किया जानेवाला संयम है। यह बेलगाम भोग और पूरी तरह से छोड़ने के बीच का मार्ग है। सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों यात्राओं में संयम का बहुत महत्त्व है। इसके द्वारा सिर्फ शरीर पर ही नहीं बल्कि मन, बुद्धि, भावनाओं… सभी पर संयम पाकर ईश्वर से योग किया जा सकता है और उस अवस्था से संसार में उच्चतम अभिव्यक्तियाँ की जा सकती हैं। पर यह कैसे संभव है, इन्हीं रहस्यों से यह पुस्तक परदा उठा रही है। इसमें आप जानेंगे :
* आत्मसंयम की वह मूल समझ क्या है, जो संयम को दमन बनने से रोकती है?
* आत्मसंयम का क्या महत्व है, यह हमारे लिए क्यों जरूरी है?
* इंद्रियों को किस प्रकार संयमित करें, जो वे हमारे उत्थान का कारण बनें, पतन का नहीं।
* अहंकारी चंचल मन को सत्-चित्त मन कैसे बनाएँ?
* अपने अंदर उठनेवाले व्यक्ति (मैं) के संकल्पों और सेल्फ (स्त्रोत) के संकल्पों में कैसे भेद करें?
* सेल्फ के संकल्पों (विचारों) को अपने संकल्प कैसे बनाएँ?
तो आइए, इस पुस्तक में दी गई गीता के आत्मसंयम योग की जरूरी समझ जीवन में उतारकर, हम भी आत्मसंयमी कर्मफौजी बन, अपना पृथ्वी लक्ष्य सफल करें।
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