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ईश्वर ने जब संसार की रचना की तब उसने रचनात्मकता के शिखर पर नर और नारी की रचना की। नर व नारी यानी शिव और शक्ति, जिससे संसार पूर्ण होता है। स्त्री व पुरुष दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, एक-दूसरे के बिना वे आधे-अधूरे हैं। ईश्वर ने पुरुष को सशक्त एवं शक्तिशाली बनाया तो नारी को कोमल तथा प्रेममयी। असल में नारी यानी स्त्री किसे कहा जाता है, यह संत मीराबाई ने अपने जीवन से दर्शाया है।
संत मीराबाई भगवान कृष्ण की अनन्य भक्त थीं। वे ईश्वर के प्रति अपने प्रेम के लिए विख्यात थीं। उन्होंने अपने आराध्य की खोज में अपना राज्य छोड़ दिया। वे अपने राज्य से बहुत दूर जाकर एक कृष्ण मंदिर में ठहरीं। मंदिर के पुजारी ने उन्हें मंदिर में आने से रोकते हुए कहा, ‘नारियों को इस मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है।’ ये शब्द सुनकर मीरा ने पुजारी से कहा, ‘क्या भगवान कृष्ण के अतिरिक्त इस मंदिर में कोई दूसरा पुरुष है? क्या तुम स्वयं को पुरुष मानते हो? कोई भी नारी बने बिना उसके मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकता। उसके मंदिर में प्रवेश करने के लिए तुम्हें नारी बनना होगा।’
मीरा जो कहने की कोशिश कर रही थीं, उसे समझने की कोशिश करें। उन्होंने ‘नारी’ किसे कहा? उन्होंने यहाँ किसी को स्थूल शरीर या आकृति के कारण नारी नहीं कहा। उनका अर्थ तो यह था कि जो भी इंसान प्रकृति के प्रति ग्रहणशील है, वह नारी है। वे यह संकेत करना चाहती थीं कि जो स्वभाव से लचीला और निःस्वार्थ देने की भावना रखता है… सिर्फ वही ईश्वर के पास पहुँच सकता है, ईश्वर के तादात्म्य में रह सकता है।
हर इंसान कभी ग्रहणशील होता है तो कभी नहीं। जब वह ग्रहणशील नहीं होता यानी उस वक्त वह पुरुष है। जब वह ग्रहणशील होता है तब वह स्त्री होता है। ऐसा पुरुषों और महिलाओं के शरीरों के कारण नहीं कहा जा रहा है बल्कि उन गुणों के कारण कहा जा रहा है, जिन्होंने उन्हें आकार दिया है। हर इंसान के अंदर दोनों बातें होती हैं। जब आप श्रवण करते हैं तब स्त्री बनकर करते हैं। जब आप सुन रहे हैं तब आप ग्रहण कर रहे हैं, आपके द्वारा कुछ लिया जा रहा है यानी आप ग्रहणशील होते हैं। जब भी आप सत्य का श्रवण करते हैं तब आप ग्रहणशील होकर, स्त्री बनकर ही करते हैं। जब आप भक्ति कर रहे हैं तब ग्रहणशील होकर, स्त्री बनकर ही भक्ति होती है। जब आप सेवा कर रहे हैं तब पुरुष बन जाते हैं, फिर चाहे वह स्त्री क्यों न हो। जब आप सेवा में हैं तब कोई भी हो, वह पुरुष है। जब श्रवण में हैं तब आप स्त्री हैं यानी आप ग्रहणशील हैं। आपके अंदर ग्रहणशीलता बढ़ रही है। जो मौन में दिया जा रहा है उसे आप ग्रहण कर रहे हैं।
जब मीरा ने उस पुजारी से यह बात कही तब पुजारी के लिए वह बात बहुत बड़ा झटका (सबक) थी। मंदिर में रहकर भी वह पुरुष बनकर बैठा है यानी अब तक वह कृष्ण के प्रति ग्रहणशील नहीं बना है।
संत मीराबाई के जीवन की इस घटना से समझें कि इंसान के मन में यह गलत धारणा बैठ गई है कि इस-इस तरह का शरीर हो तो वह स्त्री है और इस-इस तरह का शरीर पुरुष है मगर ऐसा नहीं है। स्त्री, पुरुष शरीर (मनोशरीर यंत्र) नहीं है बल्कि स्त्री या पुरुष (नर-नारी, आदमी-औरत) गुण हैं। यह गुण जिस शरीर में डाला जाएगा, वह शरीर वैसा आकार लेगा। उदा. जिस तरह एक बोरे में रेत भरकर, उसे लटकाकर लोग उसका मुक्केबाजी (बॉक्सिंग) की प्रैक्टिस के लिए इस्तेमाल करते हैं और दूसरे बोरे में थर्माकॉल के गोल-गोल टुकड़े डाल दिए तो वह मुक्केबाजी के लिए इस्तेमाल नहीं होगा, वह रेत की अपेक्षा हलका होगा। यदि उस बोरे पर बैठ गए तो वह कुर्सी का आकार ले लेगा, लेजी बैग बन जाएगा। जिस तरह एक बोरा मजबूत और भारी होता है और एक हलका होता है मगर दोनोें बोरे हैं, उसी तरह स्त्री या पुरुष दोनों एक ही बोरा (शरीर) हैं, फर्क इतना ही है कि दोनों में अलग-अलग चीज़ डाल दी गई है। जब किसी में स्त्री का गुण डालते हैं तो वह मुलायम और नाजुक होती है और किसी में पुरुष का गुण डालते हैं तो वह सख्त और मज़बूत होता है। दोनों शरीरों में अंदर जो भरा है, उससे वह चीज़ आकार लेती है।
स्त्री के गुणों में वह ग्रहणशील है, पुरुष के गुणों में वह आक्रमणकारी है, मज़बूत है। इसका अर्थ ऐसा भी न समझें कि केवल स्त्री के शरीर में ही ग्रहणशीलता होगी, पुरुष के शरीर में नहीं होगी। दोनों शरीरों में दोनों बातें होती हैं। हर पुरुष, हर स्त्री में दोनों गुण होते हैं मगर जिस शरीर में स्त्री का गुण ज्यादा प्रबल होता है, वह शरीर वैसे आकार लेता है इसलिए स्त्री का आकार अलग दिखेगा। पुरुष के अंदर जो गुण ज्यादा प्रबल है, वह शरीर वैसा आकार लेगा। जो गुण ज्यादा प्रबल होता है, वह गुण हमें दिखाई देता है क्योंकि उसके आकार में वैसी तबदीली आती है मगर हम आकार में उलझ जाते हैं।
स्त्री के अंदर जो गुण हैं, उसे अगर सही ढंग से इस्तेमाल किया जाए तो वे अभिशाप नहीं, वरदान बन सकते हैं। अपने गुणों से स्त्री वह कर सकती है, जो करने के लिए वह प्रकट हुई है। स्त्री एक शक्ति है, जिसमें तीन मुख्य गुण हैं, जो इस प्रकार हैं-
पहला गुण – ग्रहणशीलता
ग्रहणशीलता तथा लचीलापन ये स्त्री का सबसे पहला और अहम् गुण है, जिसकी वजह से उसमे समर्पित भाव और प्रेम सहजता से उभर आता है। पुरुष भी समर्पण करता है लेकिन सबसे पहले उसे बुद्धि के बल पर विश्वास बढ़ाना पड़ता है, प्रयास करना पड़ता है। पुरषों के लिए जो प्रयास है, वह स्त्री को सहज संभव है। अर्थात जिस शरीर में ग्रहणशीलता प्रबल और सहज साध्य होती है, उसे स्त्री कहा जा सकता है।
दूसरा गुण – निरंतर कार्यक्षमता
स्त्री का दूसरा गुण है निरंतर कार्यक्षमता। दुनिया में जो भी कार्य चल रहे हैं और जहाँ एक ही जगह पर बैठकर कुछ कार्य करने पड़ते हैं, वहाँ निरंतरता की आवश्यकता होती है। ऐसे काम करते हुए पुरुष जल्दी उत्साह खो देता है। वह एक जगह पर ज्यादा देर नहीं बैठ सकता। हमेशा यहाँ वहाँ भागते रहता है। लेकिन स्त्रियों के लिए ये सहज रूप से संभव हो जाता है। एक ही घर में वो बीस साल, पच्चीस साल, चालीस साल, इतना ही नहीं कई साल रह सकती है। किसी काम में स्त्री लग जाएगी तो कितना भी बोरिंग काम हो, वह निरंतरता से कर सकती है। नौ महीने पेट में बच्चे को रखना कितना बोरिंग काम हो सकता है मगर उसके लिए यह सहज है, पुरुष यह नहीं कर पाएगा। शायद पुरुष ये काम बिलकुल भी नहीं कर सकते इसीलिए माता बनने का वर सृष्टि ने स्त्री को ही दिया है।
तीसरा गुण – सहनशीलता
स्त्री का तीसरा गुण है सहनशीलता। बच्चे को पैदा करने की अत्यंत प्रसव पीड़ा स्त्री ही सह पाती है क्योंकि उसके अंदर सहनशीलता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि उसमें इस पूरी प्रक्रिया को झेलने के लिए पर्याप्त धैर्य और शक्ति होती है। नारी की सहनशीलता कमाल की होती है। लेकिन सहनशीलता की यह क्षमता कई महिलाओं के लिए हानिकारक होती है। इसी गुण के कारण वह पुरुषों के अत्याचार, हिंसा और गलत व्यवहार को चुपचाप झेलती रहती है। जो चीज सहज होती है उसे आप करते रहते हैं। सहनशीलता स्त्री का एक अच्छा गुण था,उसे अगर सही दिशा में लगाया जाता तो विश्व के बड़े से बड़े कार्य हो सकते थे मगर स्त्री की कमजोरी के कारण इस सहनशीलता का लाभ अत्याचारियों को ही मिला। अत्याचार करने वालों ने उसका नाजायज फायदा उठाया।
अच्छे विश्व का निर्माण करने के लिए महिला जागृति परम आवश्यक है। यह जागृति पुरुषों द्वारा हुए अत्याचार से बदला लेने के लिए न होकर, विश्व क्रांति के लिए हो, प्रेम और सहनशीलता का पाठ पढ़ाने के लिए हो, विश्व शांति के लिए हो।
सौंदर्य, लज्जा, विनय, क्षमा, संतोष, विनम्रता, करुणा, मधुर वाणी, त्याग, आदि नारी के आभूषण हैं। इतिहास गवाह है, नारी के अनेक रूपों को इतिहास सराहता है और हर युग में इसे आदर दिया गया है। इन गुणों के अतिरिक्त स्त्रियों में अन्य गुण भी होने चाहिए, जिससे वे अपने आपको संपूर्ण व स्वाभिमानी महसूस कर पाएँ। नारी अपने संपूर्ण विकास के लिए अपने भीतर के गुणों को पहचानें और आत्मनिर्भर बनें।
~ सरश्री
One comment
Sunita
अलग आयाम से स्त्री, पुरुष की व्याख्या बतायी है, जिससे देखने दृष्टीकोन बदल सकता है, धन्यवाद सरश्री जी इतना सरल तरीके से बताने के लिए 🙏