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एक होली है बाहर की, जो सभी मनाते हैं। लेकिन अंदर की होली नहीं जलाई तो बाहर की होली का भी कुछ फायदा नहीं। होली का त्यौहार सिर्फ एक दिन का नहीं होता। अंदर की होली का जलना यानी अब हमारे अंदर मनन शुरू होना। इस होली की अग्नि हमारे जीवन में तब तक जलती रहनी चाहिए, जब तक हम फिर से बच्चे नहीं बन जाते (फिर से बच्चा बनना यानी शकल-सूरत या तोतली भाषा से नहीं बल्कि उस अनुभव से बच्चा बनना, जिसमें बच्चे रहते हैं)। यह अग्नि तब तक जलती रहनी चाहिए, जब तक हमारा नया जन्म नहीं होता, जब तक हमारी सारी मान्यताएँ खत्म नहीं हो जातीं।
होली एक अवसर है फिर से बच्चा बनने का, आत्मसाक्षात्कार की ओर खुद को अग्रसर करने का। अगर हम बच्चों की तरह ही खेलें, कूदें, रंग लगाएँ तो इसका अर्थ है कि हमने होली का असली फायदा नहीं लिया। तो फिर से बच्चा बनने का क्या अर्थ है? रंग किस बात का इशारा है? अग्नि क्यों जलाई जाती है? आइए इस विषय को विस्तार से जानें।
प्रचलित कथा
भारतीय पर्वों में ‘होली’ का महत्वपूर्ण स्थान है। होली का पर्व मनाने के पीछे अनेक पौराणिक कथाएँ और सांस्कृतिक घटनाएँ जुड़ी हुई हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से इस पर्व का संबंध प्रहलाद और होलिका की कथा से जोड़ा जाता है।
भक्त प्रहलाद के पिता हिरण्यकश्यपु (असुर राजा) नास्तिक थे तथा वे नहीं चाहते थे कि उनके घर या पूरे राज्य में उन्हें छोड़कर किसी और की पूजा की जाए। जो भी ऐसा करता था, उसे जान से मार दिया जाता था। प्रहलाद को उन्होंने कई बार मना किया कि वह भगवान विष्णु की पूजा करना छोड़ दे परंतु वह नहीं माना, अंतत: उसे मारने के लिए उन्होंने अनेक उपाय किए परंतु सफल नहीं हुए। हिरण्यकश्यपु की बहन का नाम होलिका था, जिसे यह वरदान था कि वह अग्नि में नहीं जलेगी। अत: हिरण्यकश्यपु ने अपनी बहन को यह आदेश दिया कि वह प्रहलाद को लेकर आग में बैठ जाए, जिससे कि प्रहलाद जलकर राख हो जाए। लेकिन ज्योंहि वह आग के ढेर में बैठी, वह तो जलकर राख हो गई, परंतु भक्त प्रहलाद को कुछ नहीं हुआ। बाद में भगवान विष्णु ने नरसिंह का अवतार लेकर हिरण्यकश्यपु का वध किया। उसी समय से होलिका दहन और होली का उत्सव इस रूप में मनाया जाने लगा कि यह अधर्म के ऊपर धर्म, बुराई के ऊपर भलाई और दानवत्व के ऊपर देवत्व की विजय है।
प्रतीकों की भाषा
- हिरण्यकश्यपु : भक्त प्रहलाद के पिता हिरण्यकश्यपु मन यानी कॉन्ट्रास्ट मन का प्रतीक है। इसका अर्थ है तुलना करनेवाला मन, जो दु:ख का कारण है। वह मन जो मैं-मैं कहता रहता है और बोलता है कि ‘मैं भगवान हूँ, दूसरे नहीं इसलिए सिर्फ मेरी ही पूजा हो।’
- होलिका : होलिका जो हिरण्यकश्यपु की बहन है यानी मन की मान्यताएँ और धारणाएँ। मन बहुत सारी बातें मानकर बैठा है, जो सत्य नहीं है। होलिका इच्छाओं की प्रतीक है, जो हिरण्यकश्यपु का अहंकार बढ़ाती रहती है। होलिका कल्पनाओं की प्रतीक है, जो हिरण्यकश्यपु को वास्तविकता देखने से रोकती है।
मान्यताएँ यानी ऐसी बातें, जिसे हम पहले से मानकर बैठे हैं। जैसे ऐसा-ऐसा हुआ यानी अच्छा हुआ, ऐसा-ऐसा हुआ यानी बुरा हुआ। ये सभी मानी हुई बातें हैं कि यह शुभ है, यह अशुभ है। उदाहरण के लिए हमें जन्म से ही एक नाम दे दिया गया। मगर आज यही नाम हमें इतना पसंद आ गया है कि इसके लिए हम मरने-मारने को तैयार हैं। होलिका भी मान्यता ही है। जब होली जली तो असलियत में होलिका जल गई और प्रहलाद बच गए यानी मान्यताएँ भस्म हो गईं और समझ बढ़ गई। एक बार समझ मिलने के बाद इंसान सभी मान्यताओं से मुक्ति पा लेता है। जैसे-जैसे मान्यताएँ खत्म होंगी, वैसे-वैसे होली मनाने का दिन नज़दीक आएगा। - प्रहलाद : प्रहलाद यानी सत्य, जो मन के पीछे छिपा रहता है। मन असल में सत्य का मालिक बनना चाहता है लेकिन जिस तरह चश्मा आँख को नहीं देख सकता, वैसे ही मन सत्य पर काबू नहीं पा सकता। मन जब नमन होता है, तब ही वह भक्त बनकर सत्य में विलीन हो सकता है।
उत्सव मनाने का असली अर्थ
- होली (शीतल-पवित्र) अग्नि : पवित्र अग्नि जिसमें मान्यताएँ, इच्छाएँ व कल्पनाएँ जल जाती हैं। अग्नि प्यास है, जिससे हर मुसीबत से भक्त प्रहलाद लड़ पाता है। यह अग्नि तपन नहीं देती बल्कि शीतल करती है। होली की अग्नि शीतल अग्नि है। इंसान का शरीर पंच धातुओं से बना है- आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी। ये सभी निराकार से उत्पन्न हुई धातु हैं। उस निराकार को पूजना हो तो कैसे पूजें? इसलिए पंच तत्वों में से एक तत्व चुनना आवश्यक था। आकाश को चुनो तो वह निराकार होने की वजह से पता नहीं चलता। वायु भी बहुत सूक्ष्म होती है, जो सिर्फ महसूस की जा सकती है। जल और पृथ्वी बहुत स्थूल तत्व हैं, जो निराकार से दूर के हैं। इसीलिए उस निराकार की पूजा करने के लिए, अग्नि को ही चुना गया।
- गीली लकड़ियाँ : तामसिक वृत्ति (स्वभाव) अहंकार, नफरत, द्वेष और सुस्ती।
- सूखी लकड़ियाँ : राजसिक वृत्ति (स्वभाव) लोभ, लालच, महत्त्वकांक्षाएँ, ईर्ष्या और भाग-दौड़।
- जिस लकड़ी से सभी लकड़ियाँ जलाई जाती है : सात्विक वृत्ति (स्वभाव)। लकड़ियों को जलाने में शांत, संतोषी, एकाग्रचित्त विचारों की मदद ली जाती है। जब मन में एक की ही भक्ति का विचार या ‘मैं कौन हूँ?’ का विचार (सवाल) चलने लगता है, तब यह भक्ति या यह सवाल, वह लकड़ी बन जाता है। इसी से सारी मान्यताओं और इच्छाओं की लकड़ियाँ जलाई जाती हैं।
- विशेष बात : होली में सभी लकड़ियाँ जल जाने के बाद सात्विक वृत्ति की निशानी- आखिरी लकड़ी भी अग्नि में डाल दी जाती है क्योंकि सात्विक वृत्ति शरीर का स्वभाव है और हम इस शरीर से परे हैं। यह जानना ही होली मनाने का लक्ष्य है। अंग्रेजी में होली शब्द का अर्थ होता है ‘पवित्र’।
- होली में रंगों का महत्त्व : सभी रंग सफेद रंग से निकले हैं। इसी तरह सारे आकार भी एक ही निराकार से निकले हैं। अलग-अलग रंगों के पीछे एक ही रंग होता है। जो सात रंग माने गए हैं, वे सात नहीं एक हैं। जैसे एक बल्ब के चारों ओर सात रंग के परदे लगा दिए जाएँ तो बाहर आनेवाला प्रकाश अलग-अलग दिखाई देगा। लाल परदे से लाल, नीले से नीला व पीले से पीला प्रकाश दिखाई देगा। लेकिन आप अच्छी तरह जानते हैं कि उन सबके पीछे एक ही प्रकाश है। यही बात समझाने के लिए रंगों का सहारा लिया गया है ताकि लोगों में भाईचारा बढ़े। इसीलिए होली के दिन दुश्मन भी दोस्त बन जाते हैं।
- होली जलाने के भौतिक कारण : होली के जलाने से दूषित हवा शुद्ध हो जाती है। जीवन में फायदे और गर्मियों का स्वागत भी होता है। कीड़े, जंतु, मच्छर आदि अग्नि के धुएँ की वजह से मर जाते हैं। गर्मी शुरू होने के कारण अब लकड़ियाँ जलाने की जरूरत नहीं होगी इसलिए घर में जमा की गई लकड़ियाँ, एक साथ जलाई जाती हैं। इस दिन पर जमा करने की आदत को तोड़ने का अवसर मिलता है।
धूलिवंदन क्यों किया जाता है?
होली जलाने के बाद जो राख बच जाती है, उसे अपने माथे पर लगाया जाता है। उसी को धूलिवंदन कहा गया है। होली के दूसरे दिन लोग अपने और दूसरों के माथे पर वह राख लगाते हैं ताकि उनकी जो इच्छाएँ, मान्यताएँ हैं, वे भी राख हो जाएँ, उन्हें भी सत्य मिल सके। असल में शरीर को तो फिर से इस धूल में मिल जाना है। अगर सत्य जान लिया तो समझ में आएगा कि यह शरीर ही मरता है और राख में मिल जाता है। होली के त्यौहार में ये सब इशारे हैं।
गलत मान्यताओं और वृत्तियों को होली में दहन करके, आइए अब समझ के साथ होली मनाएँ।
~ सरश्री
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Sunil
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