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दो दोस्त भानू और प्रकाश राजस्थान के रेतीले इलाके में चलते जा रहे थे। गर्मी से बचने के लिए उन्होंने सिर पर पगड़ी पहनी हुई थी। तभी वहाँ पर धूलभरी आँधी चलने लगी। आँधी इतनी तेज़ होने लगी कि उन दोनों की पगड़ी उतरकर दूर जा गिरी। भानू अपनी पगड़ी के पीछे जाने लगा तो प्रकाश ने उसे रोका- ‘अरे क्या कर रहा है, देख कितनी तेज़ आँधी आ रही है… यहाँ रहना खतरे से खाली नहीं… चल जल्दी भागते हैं और किसी सुरक्षित जगह शरण लेते हैं।’
मगर भानू ने उसकी एक न सुनी। वह बोला, ‘यह मेरी बहुत महँगी रेशमी पगड़ी है, कल ही बाज़ार से खरीदी थी, मैं बस इसे जल्दी से लेकर आता हूँ’ और वह पगड़ी के पीछे दौड़ पड़ा।
मौसम का खतरा भाँप प्रकाश वहाँ से भाग खड़ा हुआ। रेगिस्तानों की आँधियों में कुछ ही पलों में पूरे के पूरे रेत के टीले उड़कर अपनी जगह बदल लेते हैं। उस समय भी वहाँ ऐसा ही हुआ। पगड़ी के चक्कर में भानू टीले में दब गया, जबकि प्रकाश बच गया। उसे जब अपने दोस्त की खबर मिली तो वह बहुत दुःखी हुआ और बोला, ‘काश! भानू समय रहते समझ लेता कि सिर सलामत तो पगड़ी हज़ार मगर अब क्या बचा?’
जी हाँ, यह एक मुहावरा है, जिसका अर्थ है- जब दो में चुनाव करना हो तो जिसकी वैल्यू ज़्यादा हो, उसे ही चुनना चाहिए। आंशिक लाभ के चक्कर में बड़ी पूँजी दाँव पर नहीं लगानी चाहिए। अगर उस बंदे की जान बची रहती तो आगे जीवन में वह कितनी पगड़ियाँ खरीद और पहन सकता था। मगर जब सिर ही सलामत नहीं बचा तो पगड़ी का क्या करना!
यह कहानी पढ़कर लगेगा, भानू ने बहुत बड़ी बेवकूफी की। असल में दूसरों की बेवकूफी देखना आसान है, अपनी बेवकूफियाँ देखना बहुत मुश्किल। क्योंकि अपनी बेवकूफियाँ देखने में हमारी पगड़ी उतरती है, अपनी ही नज़र में…!
वैसे तो पगड़ी को स्वाभिमान का प्रतीक कहा जाता है। किंतु इस उदाहरण में पगड़ी हमारे अहंकार का प्रतीक है और सिर सेल्फ का यानी हमारी आंतरिक आवाज़ का। अतः देखें कि हम कहाँ-कहाँ भानू बन जाते हैं; अपने अहंकार को सँभालने के लिए अपने सेल्फ को अनसुना करते हैं; अपने अंदर की आवाज़ को दबाते हैं।
मान लीजिए, हम ट्रैफिक में कहीं जा रहे हैं। कोई हमसे आगे निकल गया या गलत कट मारकर गया तो हम क्या करेंगे? कुछ लोग ऐसे लोगों के पीछे जाते हैं, यह सोचकर कि ‘उस इंसान को तो मैं सबक सिखाकर ही रहूँगा…।’ भले इस चक्कर में उनकी गाड़ी पर स्क्रैच आ जाए, झगड़ा बढ़ जाए, उनका समय, ऊर्जा, पैसा बरबाद हो मगर वे पीछे नहीं हटते। यानी सिर की कीमत पर पगड़ी के पीछे जाते हैं और अंततः वह भी नहीं बचती।
वैसे क्या आपको पता है पगड़ी पहनना क्यों शुरू हुआ था? पहले युद्ध के समय या यात्रा के दौरान पगड़ी पहना करते थे ताकि कोई सिर पर वार करे तो सिर सलामत रहे। वास्तव में पगड़ी सिर की रक्षा के लिए बनी थी मगर गुज़रते समय के साथ इंसान ने इस उद्देश्य को उलटा ही कर दिया। पगड़ी (अहंकार) को बचाने के लिए सिर दाँव पर लगाने लगा। वह ‘सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका नहीं सकते…’ का नारा गाने लगा। हालाँकि स्वाभिमान और अहंकार में फर्क है। इस फर्क को जाने बिना लोग अहंकार को स्वाभिमान मानकर उसे पोषित करते रहते हैं। ‘इसने मुझे एक सुनाया, मैं पलटकरदो सुनाऊँगा…’ जैसी भावना अहंकार का पोषण है, स्वाभिमान नहीं।
ईश्वर ने इंसान को अहंकार इसलिए दिया ताकि वह उसकी संसार रूपी लीला में भाग ले सके, अपने शरीर की रक्षा कर सके, जीने के लिए काम कर सके। जैसे एक बच्चे से काम कराने के लिए माता-पिता उसका अहंकार पोषित करते हैं, ‘अरे तुम कितना अच्छा काम करते हो, तुमसे बेहतर तो कोई कर ही नहीं सकता’ और बच्चा खुशी-खुशी वह काम कर जाता है। लेकिन अगर वह बड़ा होने के बाद भी अपने अहंकार की तुष्टि इसी तरह करवाते रहना चाहे तो उसे चोट पहुँचेगी क्योंकि आगे चलकर उसे हर बात के लिए बाहरवालों से तारीफ नहीं मिलनेवाली।
बड़े होने के साथ-साथ उसे अहंकार की तुष्टि के लिए नहीं बल्कि आंतरिक खुशी के लिए काम करना सीखना होगा। अंदर की आवाज़ को सुनना, सीखना होगा। फिर बाहर से कोई उसके अहंकार की तुष्टि करे या ना करे, उसे फर्क नहीं पड़ेगा… उसके अंदर से आ रही आवाज़ ही बताएगी कि उसे क्या करना चाहिए, वह जो कर रहा है, सही है या नहीं…।
आप सही समय पर मूल्यवान को बचाने का निर्णय ले पाएँ, इसके लिए ज़रूरी है, जीवन में कोई दृढ़ निश्चय करें। आपको पता हो कि आपके लिए क्या चीज़ ज़्यादा ज़रूरी है, सिर को बचाना या पगड़ी को। इसके लिए आप कुछ भूतकाल के ऐसे अनुभवों को भी सामने ला सकते हैं, जिसमें आप पगड़ी यानी अहंकार को बचाने गए और अधिक नुकसान करके लौटे। उस वक्त आपने सोचा होगा कि अगर अंदर की आवाज़ सुनकर रुक जाता तो आज स्थिति कुछ अलग होती।
अब समझनेवाली बात यह है कि अपने अंदर की आवाज़ हमें कैसे कम्युनिकेट करती है। वह हमें तीन तरह से कम्युनिकेट करती है। पहला टेंशन देकर, दूसरा इंट्यूशन देकर और तीसरा इंटेन्शन देकर।
जब हमें किसी बात को लेकर टेंशन होती है तो हम सामान्यतः घबरा जाते हैं। दरअसल हम उस टेंशन के पीछे छिपी सेल्फ की आवाज़ को नहीं सुन पाते। जब सेल्फ हमसे कुछ विशेष काम करवाना चाहता है तो वह हमें उससे संबंधित टेंशन देगा। उस टेंशन की वजह से हमें कोई विशेष काम करने हेतु बल मिलेगा। जैसे विद्यार्थियों को परीक्षा में पास होने की टेंशन होती है तो वे पढ़ाई की गुणवत्ता बढ़ाते हैं।
लेकिन जिन लोगों को टेंशन के पीछे का अर्थ नहीं पता, वे उसे समस्या की तरह देखते हैं। उसे दूर करने के लिए व्यसनों में, मनोरंजन में जाते हैं। उसका ब्लेम कभी ईश्वर पर, कभी किस्मत पर तो कभी दूसरों पर डालते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि टेंशन हमारे अंदर से आ रहा पुश है। उसे डिकोड करें कि वह आपसे क्या करवाने आ रहा है।
सेल्फ के कम्युनिकेशन का दूसरा तरीका इंट्यूशन देना है। इंट्यूशन उन तीव्र भावनाओं को कहते हैं, जो अचानक से आपके अंदर से उठती हैं। जैसे कोई और आपको वे निर्देश दे रहा हो। इंट्यूशन्स को आपने भी कभी न कभी महसूस किया होगा। सेल्फ आपको तीव्र इंट्यूशन देगा कि आपको कुछ विशेष काम करना है या कुछ काम नहीं करना है। लेकिन जब इंसान पर अहंकार हावी होता है तो उसे सेल्फ की इंट्यूशन अपने मन का वहम लगती है। वह दोनों में भेद नहीं कर पाता। उसका दिमाग (पुराना ढाँचा) अपनी चलाता है। सेल्फ की आवाज़ न सुनने के कारण जब काम बिगड़ते हैं तो लोग अकसर कहते हैं, ‘मुझे अंदर से ऐसा लगा था कि मैं यह ना करूँ, फिर भी मैंने पता नहीं क्यों कर डाला…।’
सेल्फ के कम्युनिकेशन का तीसरा तरीका है- इंटेन्शन देना। कभी-कभी हम अचानक किसी भीतरी प्रेरणा से कोई इंटेन्शन ले लेते हैं और उसे जी जान से निभाते हैं। इंटेन्शन लेने का साहस हमसे सेल्फ ही करवाता है। इस कारण हम बहुत कुछ ऐसा कर गुज़रते हैं, जो हमने पहले से प्लैन नहीं किया होता।
इस तरह टेंशन, इंट्यूशन और इंटेन्शन देकर सेल्फ हमारे शरीर को किसी विशेष दिशा में चलाता है। जो लोग सेल्फ के साथ तालमेल बिठा लेते हैं, वे जीवन में सब कुछ सरलता और सहजता से पाते हैं। ऐसे लोग ही आपको कहते मिलेंगे, ‘पता नहीं कैसे हो रहा है मगर ईश्वर की कृपा से मेरा हर काम हो रहा है।’
जो यह तरीका समझ गया वह हमेशा प्रसन्न और संतुष्ट रहेगा, वह सिर की कीमत पर कभी पगड़ी के पीछे नहीं भागेगा क्योंकि सिर सलामत तो पगड़ी हज़ार…!
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