महाराष्ट्र संतों की कर्मभूमी है। जहाँ पर संत ज्ञानेश्वर, संत नामदेव, संत एकनाथ, रामदास स्वामी, जैसी अनेक महान विभूतियों ने जन्म लिया और विश्व उद्धार करने के लिए लोगों को ज्ञान दिया। उच्च नैतिक मूल्यों की हिफाज़त, लोकशिक्षण, लोक संग्रह, भक्ति मार्ग ऐसे कई महत्त्वपूर्ण कार्य ऐसी विभूतियों द्वारा हुए, आज भी हो रहे हैं। ऐसे सभी संतों की माला में एक ऐसे संत थे, जिन्होंने महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन छेड़ा। इतना ही नहीं बल्कि सभी समस्याओं, आपदाओं के बावजूद वे भक्तिमार्ग पर अटल रहे। उनके लिखे हुए अभंग न सिर्फ एक उच्च साहित्य है बल्कि उनके जीवन का और तत्कालिक समाज स्थिति का प्रतिबिंब भी है।
संत तुकाराम आज से करीबन 500 साल पहले इस भूमी पर आए थे। जिनके द्वारा एक महान कार्य उस युग में हुआ, जिसकी वजह से मराठी संतों की माला में ‘ज्ञानदेवे रचिला पाया, तुका झालासे कळस’ कहकर, उनका गौरव किया जाता है। अर्थात महाराष्ट्र की भूमि पर यदि विट्ठल भक्ति और अध्यात्म की शुरुआत संत ज्ञानेश्वर द्वारा हुई तो इसे आगे बढ़ाकर उच्चतम अवस्था तक ले जाने का कार्य संत तुकाराम द्वारा संपन्न हुआ।
तुकाराम महाराज का जीवन दया और क्षमा का सागर है। उन्होंने अपने अनुभव इतनी सहजता से और कपटमुक्त होकर बताए हैं, जिसे लोग आज अभंग के रूप में गाते हैं। तुकाराम महाराज ने उस वक्त के लोगों को वह ज्ञान दिया, जिसका अनुभव उन्होंने स्वयं किया था। सहज, सुंदर लोकभाषा और भक्ति के माध्यम से उन्होंने अपनी सिखावनियाँ उनकी गाथा में लिखी हैं। तुकाराम महाराज एक सामान्य पुरुष थे पर अपनी हरि भक्ति और निःस्वार्थ भाव से वे असामान्य संत बने।
संसार का हर इंसान एक अच्छा इंसान बने, जिससे एक आदर्श समाज निर्माण हो, ऐसे विचार संत तुकाराम के मन में, जब वे साधक अवस्था में थे तब से आते थे। समाज में कैसे वर्ण, जाति, संपत्ति की वजह से अहंकार बढ़ता है और कैसे इस पाखण्ड को नष्ट करना है, इसका वर्णन उन्होंने अपने अभंगों द्वारा किया है। गुरु कृपा से उन्हें ईश्वर दर्शन हुआ और उन्होंने अपना जीवन विश्व कल्याण के लिए समर्पित किया।
संत तुकाराम, ईश्वर को अपने अभंग में कहते हैं कि भगवान को भक्त की आवश्यकता है क्योंकि वह अपनी सराहना खुद नहीं कर सकता। इसलिए उसने भक्त का निर्माण किया है। वे ईश्वर को कहते हैं कि ‘तुम बिना भक्त के अधूरे हो क्योंकि तुम अपनी सराहना नहीं कर सकते।’ गाय खुद घास ही खा सकती है, दूध तो उसका बछड़ा ही पी सकता है यानी हर एक के अंदर जो चैतन्य-अनुभव है, उसकी सराहना की जा रही है। शरीर जब निमित्त बनता है तब वह सराहना करता है, आश्चर्य करता है और ईश्वर यह चाहता है।
संत तुकाराम का जीवन वैराग्य और भक्ति का एक सुंदर संगम था, है, और रहेगा। निःस्वार्थ और परोपकारी जीवन का सागर था, है और रहेगा। वे सिर्फ वही ज्ञान देते, जो उन्होंने स्वयं आचरण में लाया था। उनके शब्दों, अभंगों और कीर्तनों में दृढ़ता थी। इसी कारण बहिणाबाई सेऊरकर और निळोबा पिंपलनेरकर जैसे शिष्य उनसे प्रभावित हुए थे।
संत तुकाराम को ‘जगद्गुरु’ भी कहा जाता है क्योंकि उन्होंने हर प्रकार के शिष्यों को मार्गदर्शन दिया। जैसे कुछ शिष्य केवल राहत पाने के लिए अध्यात्म मार्ग पर चलते हैं। कुछ शिष्यों के अंदर सत्य पाने की प्यास बहुत ही तीव्र होती है। कुछ शिष्य ज्ञान तो पाते हैं मगर अहंकार की वजह से पथभ्रष्ट हो जाते हैं। कुछ शिष्य भक्त बन पाते हैं मगर मोह-माया के शिकंजे में अटककर सच्ची भक्ति की दौलत खो देते हैं। सत्य की राह पर चलनेवाले कुछ ही शिष्य ‘अंतिम सत्य’ प्राप्त करते हैं। संत तुकाराम ऐसे सभी प्रकार के शिष्यों को दिशा देनेवाले ‘सद्गुरु’ थे। मगर उन्होंने स्वयं का ‘गुरु’ के रूप में जिक्र कभी भी नहीं किया।
सहज, सुंदर लोकभाषा और भक्ति के माध्यम से उन्होंने अपनी सिखावनियाँ उनकी गाथा में लिखीं। उनकी यह ग्रंथ रचना आज के युग पर बड़ी कृपा है। तुकाराम महाराज की शिक्षाओं में एक सादापन है, उनके कथन में कभी भी उलझी, अगम्य या कल्पना की बातें नहीं होती थीं। उस वक्त उनके सामने जो भी लोग थे, उनकी अवस्था को ध्यान में रखते हुए उन्होंने मार्गदर्शन दिया। उनके अभंग उनके अंदर प्रकाशमान हुई सर्वोच्च चेतना और भक्ति की अभिव्यक्ति हैं।
जीवन में आनेवाली घटनाओं, समस्याओं को ‘पांडुरंग का वरदान’ समझकर अकंप बनने का ज्ञान संत तुकाराम के कीर्तन और अभंगों में हमें सहज ही मिलता है।
संत तुकाराम के जीवन में जो भी कठिन परिस्थितियाँ थीं, उसकी तुलना में हमारा जीवन कितना सुखद, सहज और हाई-टेक है। फिर भी इंसान आध्यात्मिक साधना को कम महत्त्व देते हुए विकारों के जाल में अटकता जा रहा है। जो इंसान फेसबुक या वॉट्स-अप पर कई घंटों तक लगातार समय गँवाता है, उसके पास ध्यान करने के लिए समय नहीं है। असल में फेसबुक पर समय गँवाने से बेहतर है कि हम संत तुकाराम की अभंग गाथा पढ़कर सही अर्थ में जीने की कला सीखें। संत तुकाराम का जीवन हमें इक्कीसवीं सदी में भी भक्तियुक्त प्रतिसाद देकर, सत्य में स्थापित होने का संकेत देता है।
आज का युग सुख-सुविधाओं के संसाधनों और गैजेट्स का युग है। लेकिन संत तुकाराम के जीवन में आज के जीवन जैसी एक भी सुविधा उपलब्ध नहीं थी। इतना ही नहीं, उन्हें कई बार भूखे पेट सोना पड़ा। फिर भी उन्होंने आध्यात्मिक साधना न करने के लिए कोई कारण नहीं दिया। हालाँकि उनके पास समस्याओं की लंबी सूची थी, जिसके अंतर्गत वे सत्य से पलायन कर सकते थे मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया। उनके जीवन में उन्हें कभी विकारों के साँप डसने लगे तो कभी अकालरूपी अक्राल-विक्राल साँप ने उन्हें परेशान किया। मगर तुकारामजी ने इन्ही साँपों (समस्याओं) को सीढ़ी बनाकर मोक्ष का अंतिम लक्ष्य पाया। संसार उनके लिए एक ‘ट्रेनिंग एकेडमी
(अकादमी)’ से कम नहीं था। ऐसे महान भक्त का जीवन हमें न सिर्फ आध्यात्मिक उन्नति की राह दिखाता है बल्कि निःस्वार्थ जीवन जीने की कला भी सिखाता है।
संत तुकाराम, यदि भक्ति का सागर हैं तो उनके अभंग भक्तिसागर में उठनेवाली लहरें। जिनमें पांडुरंग की सराहना के साथ-साथ लोगों को जाग्रत करने की प्रेरणा भी है। उन्होंने कुछ अभंगों में ‘शब्दों की शक्ति’ का महत्त्व बताया है तो कई अभंगों के माध्यम से ‘सच्चे प्रेम’ का महत्त्व जताया है। कुछ अभंगों में उन्होंने ‘पैसा रास्ता है, मंज़िल नही’ यह धन के बारे में समझ दी है तो कुछ अभंगों में वे ‘ध्यान का महत्त्व’ बताते हैं। अभंगों के माध्यम से संत तुकाराम ने उस वक्त की गलत धारणाओं, प्रथाओं पर और गुरुमार्ग में फैले भ्रष्टाचार पर कड़ा प्रहार किया है। उनकी कुछ रचनाओं में वे अत्यंत स्पष्टता के साथ, गंभीर शब्दों में उच्च आध्यात्मिक समझ प्रदान करते हैं। उन्होंने अधिकांश अभंगों की रचना मराठी भाषा में कीं मगर हिंदी भाषा में भी उनकी कुछ रचानाएँ प्रसिद्ध हैं। इस तरह संत तुकाराम ने अभंगों के माध्यम से ‘अव्यक्त’ को ‘अभिव्यक्त’ करने का प्रयास किया, जो आज भी अनेकों के अंदर भक्ति आंदोलन छेड़ रहा है।
संत तुकाराम के जीवन से आपके अंदर भी प्रेम, भक्ति जगे और उनके मार्गदर्शन से प्रेरणा पाकर आप भी अपने जीवन में महान कार्यों की शुरुआत करें… आज से, अभी से, इसी क्षण से…।
~ सरश्री
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