कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूंढ़ै बन माहि।
ऐसे घट-घट राम हैं, दुनिया देखे नाहि॥
संत कबीर के इस दोहे का अर्थ है – अपनी ही कस्तूरी की महक से बौराया हिरन उस कस्तूरी को वन-वन खोजता फिरता है। क्योंकि वह इस बात से अनजान है कि कस्तूरी उसकी अपनी ही नाभि में छिपी है। इसी तरह राम (स्वअनुभव) इंसान के अंदर ही है। उसे उसका अनुभव भी होता है मगर उस अनुभव को समझने में नाकाम इंसान राम को बाहर वनों, पहाड़ों, मंदिरों, मस्ज़िदों, कर्मकाण्डों में खोजता फिरता है।
रामनिराकार, निर्गुण, अजन्मा, अनंत, निरंतर, असीम, सर्वव्यापी है। हालाँकि राम का अनुभव हम सब ने किया होता है लेकिन कितने लोग हैं, जो उस अनुभव को पहचानकर, वहाँ स्थित हो पाते हैं! रामनवमी के पावन अवसर पर हमें भी अपने भीतर के ‘राम’ (अनुभव) को जागृत करना है। संपूर्ण भारत में रामनवमी का त्योहार भगवान रामचंद्र के जन्मदिवस के रूप में मनाया जाता है। महापुरुषों व अवतारों के जन्मदिवस मात्र उत्सव नहीं बल्कि सत्य, अनुभव, स्वसाक्षी की ओर संकेत होते हैं। हम अलग-अलग महान विभूतियों के जन्मदिवस बड़ी धूमधाम से मनाते हैं मगर क्या हमने उनसे अपने जीवन में कोई सीख प्राप्त की है? क्या हमारे जीवन में कोई बदलाव आया है? यदि नहीं तो समझें कि ऐसे त्योहार निमित्त हैं और उन पर मनन कर हम अपने जीवन में सही लाभ प्राप्त कर सकते हैं। रामनवमी के त्योहार पर हम भी श्रीराम के गुणों को अपने जीवन में उतारने का प्रयास करके, सही मायने में रामनवमी मना सकते हैं।
राम…राम…राम… जरा अपने मन में यह एक शब्द धीरे-धीरे और प्रेम से दोहराइए एवं देखिए क्या महसूस होता है? कुछ लोग यह नाम लेते ही अपने भीतर गहरी शांति और आनंद का अनुभव करते हैं और कुछ लोगों के मस्तिष्क में श्रीराम का महान चरित्र, उनसे जुड़ी कथाएँ तथा उनकी लीलाएँ उभर आती हैं, जो उन्हें सकारात्मक ऊर्जा से भर देती हैं। यही है राम नाम की महिमा। दो अक्षरों के इस छोटे से नाम में क्या जादू है, यह किसी राम भक्त से पूछकर देखिए। किसी को इस एक नाम ने दुःख में भी धीरज और ईश्वर पर विश्वास रखना सिखाया, तो कोई इसे जपने से आत्मसाक्षात्कार तक पहुँचा है।
राम परमचेतना का, ईश्वर का नाम है। जो हर मनुष्य के अंदर उसके हृदय में निवास करता है। मानवशरीर ‘दशरथ’ है। अर्थात दस इंद्रियाँ रूपी अश्वों का रथ। इस रथ के दस अश्व हैं – दो कान, दो आँखें, एक नाक, एक जुबान, एक (संपूर्ण) त्वचा, एक मन, एक बुद्घि और एक प्राण। इस दशरथ का सारथी है – ‘राम’। राम इंद्रियों का सूरज है। उसी के तेज से शरीर और उसकी इंद्रियाँ चल रही हैं। जब शरीर रूपी रथ पर चेतना रूपी राम आरूढ़ होकर इस का संचालन अपने हाथों में लेते हैं तभी वह सजीव होकर अभिव्यक्ति करता है। शरीर दथरथ है तो सारथी राम, शरीर शव है तो शिव (चेतना) राम…। राम से वियोग होते ही दशरथ का अस्तित्त्व समाप्त हो जाता है। इन दोनों का मिलन ही अनुभव और अभिव्यक्ति का, जड़ और चेतना का, परा और प्रकृति का मिलन है। अपने सारथी राम के बिना दशरथ उद्देश्यहीन है और दशरथ के बिना राम अभिव्यक्ति विहीन।
दशरथ पुत्र राम का परिचय हमें रामायण से मिलता है। रामायण एक ऐसा महाग्रंथ है जिसमें दर्ज प्रसंग, पात्र और उनके प्रतिसाद सदियों से लोगों का मार्गदर्शन करते आ रहे हैं।यह गाथा बचपन से ही नानी-दादी की सुनाई कहानियों द्वारा, किताबों-कॉमिक्स द्वारा, टी.वी. सीरियलों, नाटकों, फिल्मोंद्वारा; जगह-जगह पर खेली जानेवाली रामलीला के मंचन द्वारा, जन-जन के दिल और दिमाग पर अंकित हो चुकी है। यही कारण है कि आज राम का नाम लेते ही उनका संपूर्ण चरित्र आँखों के सामने आ जाता है। जिससे लोग सकारात्मक ऊर्जा, शांति और आनंद महसूस करने लगते हैं।
कुछ लोग रामायण को ईश्वर के अवतार श्रीराम की लीला समझकर, श्रद्धा और भक्ति से निरंतर पढ़ते रहते हैं तो कुछ लोग इसे भारतीय इतिहास की महानगाथा समझकर वर्तमान में उसके चिन्हों और साक्ष्यों को खोजने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन यह महान गाथा पढ़ने का एक और तरीका भी है। वह तरीका है ‘खोज’ का। यह खोज बाहरी साक्ष्यों या तथ्यों की नहीं है। यह आंतरिक खोज है।
वास्तव में रामायण इंसान के अलग-अलग मनोभावों का ताना-बाना है। इसकी हर घटना इंसान की आंतरिक स्थिति का ही प्रतिबिंब है। रामायण में चित्रित हर चरित्र इंसान के अंदर ही मौजूद है, जो समय-समय पर बाहर निकलता है। उदाहरण के तौर पर जब एक इंसान किसी दूसरे इंसान के विरुद्ध किसी के कान भरता है तब वह मंथरा बन जाता है। यदि कोई इंसान किसी बाहरवाले की बातों में आकर, अपने शुभचिंतकों पर ही संदेह करने लगे तो उस वक्त वह कैकेयी है।
जब एक इंसान वासना और क्रोध जैसे विकारों के वशीभूत होकर, अपनी मर्यादा लाँघ जाए तो उस वक्त वह रावण है। जब इंसान की निष्ठा सत्य के पक्ष में इतनी गहरी हो जाए कि वह अपने प्रियजनों द्वारा किए जा रहे गलत कार्यों में अपना सहयोग या मूकस्वीकृति देना बंद कर दे और पूरे साहस के साथ उनका विरोध करने हेतु खड़ा हो जाए तो उसके भीतर विभीषण का अवतरण हुआ है।
जब राम (ईश्वर) किसी शरीर के माध्यम से अपना अनुभव कर, अपने गुणों को अभिव्यक्त करना चाहता है तो उस शरीर के, उस इंसान के जीवन में ऐसी अनेक घटनाएँ घटती हैं, जो उसमें सत्य की प्यास जगाती हैं। तब उसके हृदय से सत्य प्राप्ति के लिए सच्ची प्रार्थना उठती है। यही प्रार्थना उसके जीवन में सत्य का अवतरण कराती है।
इसके विपरीत जब इंसान के अंदर रावण रूपी व्यक्ति (अहंकार) हावी हो जाता है तब उसके जीवन से सत्य अनुभव यानी राम चला जाता है। तब उसकी हालत वैसी ही हो जाती है, जैसे श्रीराम के जाने के बाद अयोध्या की हुई थी – दुःखी, उदास, सूनी-सूनी, उत्सव विहीन। क्योंकि सारी नकारात्मकता – दुःख, चिंता, डर, संशय, निराशा आदि अहंकार की ही पूँछ है, जो इसके पीछे –पीछे बँधी चली आती है। राम के जाते ही स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ और अलग माननेवाला ‘मैं’ (अहंकार) आ जाता है, जो इंसानी जीवन को सूनी अयोध्या बना देता है।
जब इंसान को अपने जीवन में राम का महत्त्व पता चलता है और उसकी कमी महसूस होती है तब उस इंसान के जीवन में राम की वापसी के लिए प्रयास शुरू होते हैं। वह गुरु के मार्गदर्शन से अपने भीतर सत्य की ताकत को बढ़ाता है और रावण (विकार और अहंकार) से युद्ध कर, उसे परास्त कर देता है। जैसे ही इंसान के जीवन में राम (परमचेतना) वापस आते हैं, अयोध्या में उत्सव, उल्लास, उत्साह, प्रेम, आनंद, मौन का आगमन होता है। आप भी अपने राम के साथ प्रेम, आनंद, मौन का आनंद उठाएँ, यही शुभकामनाएँ।
…सरश्री
One comment
Sunil Bhagwan Patil
Dhanyawad Sirshreeji
राम राम