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विविधता में एकता संजोए विभिन्न संस्कृतियों और धर्मोंवाला ‘भारत देश’ विश्व में अपना अलग स्थान रखता है। अपने पर्व-त्योहारों और रीति-रिवाजों के लिए यह अनोखा देश माना जाता है। प्रत्येक खुशी के अवसर को त्योहार और राष्ट्रीय उत्सव के रूप में मनाने की इस देश की प्राचीन परंपरा रही है। बारहों महीने कोई न कोई त्योहार, कोई न कोई उत्सव, यही इस देश की गौरवपूर्ण संस्कृति और सभ्यता की पहचान है। प्रत्येक अवसर पर सुख-शांति के प्रतीक स्वरूप किसी न किसी प्रकार के उत्सव का आयोजन इस देश में अनादिकाल से होता आया है। हमारे सारे पर्व-त्योहार सार्थक ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक भी हैं।
हर त्योहार के पीछे एक गहरा अर्थ है। यहाँ जितने भी त्योहार मनाए जाते हैं, वे सभी इशारे हैं। ये इशारे उनके द्वारा बनाए गए, जिन्होंने सत्य का अनुभव किया। वह अनुभव, जो शब्दों में लाना संभव नहीं था इसलिए उसे हर युग में अलग-अलग तरीके से समझाने का प्रयास किया गया। कभी उत्सव के रूप में, कभी त्योहारों के रूप में।
इतने सारे त्योहारों के ज़रिए इशारा केवल उसी सत्य की ओर किया गया है, जिसे लोगों ने अलग-अलग नाम दिए हैं -साक्षी, सेल्फ, चैतन्य आत्मसाक्षात्कार, समाधि, तेज सत्य। वह तेज सत्य, जो समय के पहले था, संसार के पहले था, अब भी है और सदा रहेगा।
आज जो भी त्योहार मनाए जाते हैं, उनका गहरा अर्थ है, फिर चाहे वह होली हो, दिवाली हो, दशहरा, संक‘ांति, शिवरात्री, नवरात्री या रक्षाबंधन हों। यदि वह अर्थ समझ में आए तो सभी अंधश्रद्धाएँ, डर व मान्यताएँ नष्ट होंगी। जब यह समझ आती है कि सभी देवी, देवताओं की पूजा और सभी त्योहार जो मनाए जाते हैं, वे सिर्फ इशारें हैं तो आश्चर्य होगा। त्योहारों का अगर सही अर्थ मालूम पड़ जाए, तो हमें दीपावली पूजन के वक्त याद आएगा कि किसकी पूजा हो रही है, गणपती की मूर्ति विसर्जन करेंगे तो समझ में आएगा कि किस का विसर्जन हम कर रहे हैं और महाशिवरात्रि मनाते समय समझ में आएगा कि शिव तो हमारे भीतर ही है।
शिवरात्रि के दिन ही शिवलिंग (ज्योर्तिलिंग) प्रकट हुआ है, जिसका अर्थ है आकार, निराकार एक साथ। आकार इसलिए क्योंकि उसे एक विशेष शक्ल है और निराकार इसलिए क्योंकि उसे आँख, कान, नाक अथवा कोई इंसानी शक्ल नहीं दी गई है।
शिव का बाह्य रूप आंतरिक गुण दिखा रहा है
शिव का तीसरा नेत्र, सिर पर चाँद, गंगा बह रही है, नीलकंठ ये सब संकेत हैं। इनके द्वारा इंसान की आंतरिक अवस्था बताने की कोशिश की गई है। ज्ञान की गंगा आंतरिक अवस्था है, जो बता रही है कि अंदर कौन सा ज्ञान है। समझ का नेत्र बता रहा है कि जीवन की हर घटना को तीसरे नेत्र से देखना सीखें। यह ईश्वर का गुण है। ईश्वर सभी को एक ही नजर से देख रहा है। आप किसी को देख रहे हैं तो अपने आपसे पूछें कि ‘मैं कहाँ से देख रहा हूँ?’ यदि आप तीसरे नेत्र से देखेंगे तो दु:ख विलिन हो जाएगा और संसारी आँखों से देखेंगे तो दु:ख का निर्माण होगा।
संसारी आँखों से देखना यानी कोई इंसान आपके सामने से चला गया और उसने आपको देखा ही नहीं तो तुरंत आपके मन में विचार आता है कि ‘शायद यह इंसान मुझे पसंद नहीं करता। यह मुझे प्यार नहीं करता। उसने मेरी ओर ध्यान ही नहीं दिया।’ इस तरह का विचार आना यानी आप उस छोटी घटना को संसारी आँखों से देख रहे हैं। जैसे पति-पत्नी, भाई-बहन, मित्र एक-दूसरे के लिए ऐसा सोचते हैं। लोगों के मन में सतत यह विचार आता रहता है कि ‘लोग मुझे प्रेम ही नहीं करते… मुझे ध्यान नहीं देते…।’ यह संसारी आँखों से देखना हुआ। इसके विपरीत यदि आप तीसरे नेत्र से देखेंगे तो अपने आपसे कहेंगे कि ‘तुम खुद को प्रेम करते हो क्या? खुद को ध्यान देते हो क्या? अगर तुमने खुद पर ध्यान दिया होता तो कब के आत्मसाक्षात्कारी हुए होते। तुम असल में जो हो, उस पर कभी ध्यान दिया है क्या?’ जो इंसान खुद से प्रेम करता है, वह अपना और अपने स्वास्थ्य का ज्यादा खयाल रखता है। वह कभी जरूरत से ज्यादा खाना नहीं खाता। यदि आप मनन और खोज करेंगे तो अपने जीवन में ऐसे कई सारे लोगों को पाएँगे, जो कहते हैं कि ‘सामनेवाला मुझ से प्रेम नहीं करता।’ कोई और आपसे प्रेम करता है या नहीं, इससे पहले यह जानें क
आप स्वयं से कितना प्रेम करते हैं। अगर आप स्वयं से प्रेम नहीं करते तो आप दूसरों से प्रेम की उम्मीद भी नहीं कर सकते इसलिए सबसे पहले स्वयं से प्रेम करना सीखें।
जब इंसान हर घटना को तीसरे नेत्र यानी समझ के साथ देखता है तो उसे आश्चर्य होता है। आपको यही कला सिखाई जा रही है। तीसरे नेत्र से देखना यानी ऑपरेशन करवाकर कोई तीसरा नेत्र लगवाना या खुलवाना नहीं है। यह तो कृपा है कि मूर्तियों में ऐसा दिखाया गया है। जिन्होंने मूर्तियाँ बनाई उन्हें ईश्वर से बहुत प्रेम था मगर फिर भी उन्होंने ईश्वर की तीसरी आँख बनाईं, चाहे मूर्ति कैसी भी दिखे। जिसके पीछे उद्देश्य यह था कि वह मूर्ति लोगों का मंगल करे, मंगलमूर्ति बनें। लोगों को उस मूर्ति द्वारा असली संकेत मिले। सिर पर चाँद है यानी शीतलता है। अर्थात सिर ठंडा, शीतल, पवित्र होना चाहिए, उसमें सात्विक विचार होने चाहिए।
शिव ने कंठ में जहर थाम लिया क्योंकि इंसान के कंठ से ही मैं-मैं निकलता है। उससे इंसान को संकेत दिया गया है कि तुम्हारा जहर कहाँ होना चाहिए। वह हृदय (तेजस्थान) तक न जाए और उसे लोगों पर उगलना भी नहीं है। अर्थात कुछ लोग क‘ोध को पी लेते हैं तो उन्हें हार्ट अटैक आता है और कुछ लोग क‘ोध उगल देते हैं। उनके क‘ोध से परेशान होकर लोगों को हार्ट अटैक आता है। इस तरह लोग या तो खुद को अटैक देते हैं या दूसरों को। लोगों को जीवन कैसे जीना चाहिए, यह पता नहीं है और सिर्फ शिव की मूर्ति ही नहीं बल्कि हर मूर्ति बता रही है कि कैसे जीवन जीना चाहिए। हर मूर्ति में यह रहस्य छिपा है।
शिव का डमरू भी एक संकेत बता रहा है। उसमें आठ नंबर की शकल आती है। वह अंदर और बाहर का हिस्सा बताती है। शिवलिंग भी अंदर और बाहर का हिस्सा बताता है। अंदर का हिस्सा लोग नहीं समझ पाते इसलिए डमरू से बताया गया है कि आपकी बाहर की और अंदर की जिंदगी को संतुलित रखें। आप डमरू बजा रहे हैं यानी संतुलन साध रहे हैं। दोनों आठ के बीच में हृदय (तेजस्थान), सूक्ष्म स्थान है। जिसमें से बाहर जाना भी आसान है और अंदर जाना भी आसान है। यही तो ट्रेेनिंग और टीचिंग है। सेंटर यानी केंद्र पर रहकर डमरू बजाएँ वरना लोगोें का आठ संतुलित नहीं होता। कुछ लोगों का ऊपर का शून्य बड़ा और नीचे का छोटा सा होता है। संन्यासी लोगों का नीचे का शून्य बड़ा और ऊपर का बहुत छोटा होता है। अर्थात आठ के दोनों शून्य संतुलित नहीं होते। इसके विपरीत तेज संसारी का आठ संतुलन में होता है। वह दोनों शून्य को बजाता है। डमरू के दोनों शून्य को बजाना है यानी न संसार से भागना है और न ही संन्यासी बनकर बैठ जाना है बल्कि दोनों को देखना है।
भगवान शिव के त्रिशूल में तीन बातें आती हैं – श्रवण, सेवा और भक्ति। उस युग की भाषा के अनुसार त्रिशूल कर्म, ज्ञान, भक्ति का प्रतीक है। कर्म, ज्ञान, भक्ति से भी वही बात बताई जा रही है। त्रिशूल की तीन बातों से अपने तोलू मन पर नियंत्रण पाकर उसे साधना है। साधना है यानी बॅलन्स करना है। डमरू के दोनों शून्य को एक साथ बजाना है। इस तरह आपने समझा कि त्रिशूल कुछ बता रहा है, डमरू कुछ बता रहा है, हर चीज कुछ बता रही है। बैल को मंदिर के बाहर बिठा दिया और उसका मुँह मंदिर की तरफ रखा। इसका अर्थ तोलू मन का मुँह संसार की तरफ न हो बल्कि ईश्वर की तरफ, शिव की तरफ हो वरना बाहर उसे लाल कपड़े ही दिखाई देंगे तो वह बिदगते ही रहेगा।
इस प्रकार महाशिवरात्रि के दिन पर भगवान शिव की मूर्ति पर मनन करना चाहिए। शरीर मात्र शव है और जो जिंदा चीज़ है, वह शिव है। लेकिन इंसान अपने शरीर को ही शिव मान लेता है। शिव यानी आंतरिक अवस्था। जब आप ‘मैं कौन हूँ’ यह ध्यान करते हैं, स्व अनुभव पर जाने लगते हैं तब आप शिव का अनुभव करते हैं।
शिव की तरह हम भी यदि मौत के डर पर विजय पाएँगे और मन को साधना से वश में करेंगे तो हम सच्चे शिव भक्त कहलाएँगे। यदि हम भी मन की शुद्धता को महत्त्व देंगे तो शिव की सच्ची पूजा कर पाएँगे। जैसे शिव गंगा (ज्ञान) को सभी तक पहुँचाने में निमित्त बनें, वैसे हम भी सच्चे ज्ञान को दूसरों तक सही मात्रा में पहुँचाने में सहायक बनें। अपने झूठे अहम (मैं मैं) को कंठ में ही रखें और दुनिया को अमृत बाटें। ये सब बातें वही इंसान कर पाएगा, जिसने समझा है शिव शक्ति रहस्य।
~ सरश्री
3 comments
Ram Kishore Verma
Wah Wah kya bat hai. Puri Gyan ganga ka pravah ho raha hai. Giam Ganga me khub dubki lagao.Dhanyavad Sirshree
Rakesh Rajendra kamble
Dhanyawad sirshree
सुभाष दिघे
महाशिवरात्रि मनाना याने शिव जी के गुणों पर मनन करके अपने अंदर लाना, विकसित करना। आकार से निराकार की तरफ जाना।