गुरु आज्ञा ने ऐसा पीछा किया कि रोज़मर्रा की बातों से ज्ञान मिलने लगा, शब्द के आगे ज्ञान दौड़ने लगा और जो कुछ भी मन में आया, वह सब ग्रंथार्थ होने लगा।
‘एकनाथी भागवत’ की रचना करते समय संत एकनाथ महाराज द्वारा कहे गए ये शब्द उनकी गुरु के प्रति भक्ति को दर्शाते हैं। सद्गुरु की प्यास में एकनाथ बारह वर्ष की उम्र में अपने गाँव पैठण से, बिना किसी को बताए देवगढ़ के लिए निकल पड़ें। तीन दिन की यात्रा करके एकनाथ देवगढ़ में जनार्दन स्वामी के आश्रम में पहुँच गए। जनार्दन स्वामी को देखते ही एकनाथ उनकी शरण में गए।
एकनाथ हमेशा यही प्रार्थना करते कि ‘गुरु की सेवा करने का मुझे इतना सामर्थ्य दो कि सारे नौकर-चाकरों का काम मैं अकेला ही कर दूँ।’ एकनाथ अपने गुरु के सारे कार्यों को पूरा करने में अपना योगदान देते थे यानी वे घर के कार्य तो करते ही थे, इसके साथ ही अपने गुरु के अन्य कार्य भी करते थे। कचहरी में नौकरी करने की वजह से हिसाब-किताब करना जनार्दन स्वामी के काम का ही हिस्सा था। अब उन्होंने यह काम एकनाथ को सौंप दिया। एकनाथ हर रात बैठकर दिनभर के हिसाब-किताब का काम पूरा कर लिया करते थे।
एक बार गुरुजी ने एकनाथ को हिसाब-किताब का कार्य दिया था। उसमें एक पैसे की भूल थी यानी एक पैसे का हिसाब नहीं मिल रहा था। गुरुजी तो रात में सो गए थे मगर एकनाथ महाराज पूरी रात एक पैसे का हिसाब ढूँढ़ते रहे। गौर करें कि एकनाथ के मन में ऐसा विचार नहीं आया कि ‘सिर्फ एक पैसे की ही तो बात है, कल कर लेंगे।’ इससे उनकी श्रद्धा और लगन का पता चलता है। वे आज के कार्य आज ही समाप्त करते हैं क्योंकि उनका शरीर इसके लिए प्रशिक्षित था। जबकि आजकल ज्यादातर लोग आज का काम कल पर टालते रहते हैं। दरअसल लोगों को पता ही नहीं होता कि वास्तव में क्या टालना चाहिए और क्या नहीं। इंसान को सिर्फ अपने विकारों को और नकारात्मक चीज़ों को टालना चाहिए लेकिन वह इसका उल्टा करता है। वह सेवाओं और सकारात्मक चीज़ों को टालता रहता है। उसे अपने अंदर जो गुण लाने चाहिए, वह उन्हें टालता रहता है।
एकनाथ रातभर एक पैसे का हिसाब ढूँढ़ते रहे। रात काफी हो चुकी थी, रात का तीसरा पहर भी बीत चुका था। गुरुजी के शरीर को अचानक जाग आ गई और उन्हें मोमबत्ती की रोशनी दिखाई दी। उन्होंने देखा कि एकनाथ हिसाब-किताब कर रहा है। अचानक एकनाथ को हिसाब मिल गया और वे खुशी से ताली बजाने लगे। यह देखकर गुरुजी ने एकनाथ से आकर पूछा, ‘क्या हुआ एका?’ एकनाथ ने बताया कि ‘मुझे एक पैसे की भूल मिल गई इसलिए बहुत खुशी हुई।’ पूरी बात सुनकर गुरुजी ने कहा, ‘एक पैसे की खुशी, एक पैसे की भूल पता चलने पर तुम्हें कितनी खुशी हो गई तो सोचो कि संसार बनाते समय तुमसे जो भूल हुई है, जब वह पता चलेगी तो कितनी खुशी होगी।’ दरअसल जनार्दन स्वामी कहना चाहते थे कि ‘इस संसार में प्रवेश करते ही तुमसे जो भूल हुई है, वह मालूम पड़ेगी तो कितनी खुशी होगी, कितना नृत्य करोगे, कितना आनंद लोगे।’
सोचें कि संत एकनाथ के जीवन से किस भूल की ओर आपको इशारा किया जा रहा है।
जब इंसान से अपने आपको शरीर मानने (मैं शरीर हूँ) की भूल हो जाती है और जब उसे इसके बारे में अपने अनुभव से पता चलता है तो एक विशेष वातावरण (सत् चित्त आनंद) तैयार होता है।
गुरुजी ने अपनी बात से जो इशारा किया था, वह एकनाथ महाराज को मनन करने के लिए काफी था। इसीलिए कहा जाता है कि समझदार इंसान को इशारा ही काफी है। इस तरह एकनाथ के ज्ञान और समझ की शुरुआत हुई। यह इसीलिए संभव हुआ क्योंकि वे सेवा करके स्वयं को पूरी तरह तैयार कर चुके थे। सेवा ने एकनाथ को एकाग्रता का सरताज बना दिया। एक पैसे के हिसाब के लिए पूरी रात मेहनत करके उन्होंने गुरुजी के सामने यह साबित कर दिया कि वे किसी छोटे से मुद्दे को समझने के लिए गहराई में जाकर मनन के उच्चतम बिंदु तक भी जा सकते हैं।
देखा जाए तो लोगों का मन बहुत मोटा होता है, उसमें ज़रा भी तीक्ष्णता यानी पैनापन नहीं होता। जिसके चलते वह किसी भी विषय के बारे में एक पल सोचता है और फिर दूसरे ही पल में उस विषय को छोड़ देता है, आगे उस पर मनन भी नहीं कर पाता। मन सोचता है कि ‘अभी जाने दो, इस विषय के बारे में कल सोचेंगे।’ ऐसा इसलिए होता है क्योंकि इंसान के मन को जब भी कोई गहरी दिशा दी जाती है तो वह जल्द ही थक जाता है। लेकिन बिना गहराई के मन यूँ ही कुछ सोच रहा हो या इधर-उधर भटक रहा हो तो वह नहीं थकता। घंटों तक इंसान का मन कुछ न कुछ सोचते रहता है लेकिन इंसान को इसका पता भी नहीं चलता।
जैसे थिएटर में फिल्म देखते समय ढाई घंटे का समय कैसे बीत जाता है, इंसान को पता नहीं चलता क्योंकि वहाँ मन को लगातार खाना (मनोरंजन) मिल रहा होता है। वहाँ वह ऐसी बातों में उलझा रहता है कि ‘वाह! उस हीरो के कपड़े कितने अच्छे हैं… नया फैशन आया है… उसके पीछे कौन नाच रहा था…’ वगैरह। लेकिन जैसे ही मन का खाना बंद करके उस पर लगाम कसी जाती है तो उसे नींद आने लगती है।
चूँकि एकनाथ महाराज के शरीर पर पहले ही काम कराया जा चुका था इसलिए अगर एकनाथ की अनुमति न हो तो उन्हें नींद नहीं आ सकती थी। जब तक गुरुजी खुद नहीं सो जाते, एकनाथ को नींद नहीं आती थी या जब तक उस एक पैसे का हिसाब नहीं मिला, एकनाथ को नींद नहीं आई। ऐसा सेवा कार्य एकनाथ के शरीर द्वारा हुआ था जो एकनाथी का निर्माण करनेवाला था।
आज देखा जाए तो इंसान का जीवन कैसे बिखरा हुआ है। मगर एकनाथ महाराज के जीवन में बिखराव लानेवाला ऐसा कोई कष्ट था ही नहीं क्योंकि केवल बारह साल की उम्र में ही वे अपने बिखराव से मुक्त हो चुके थे। इसीलिए उनका जीवन पूरी तरह केंद्रित था। अब सवाल उठता है कि उनके अंदर यह शक्ति कहाँ से आई कि उनका पूरा जीवन ही केंद्रित हो गया और कभी बिखराव नहीं आया? दरअसल यह गुरु की सेवा करने और गुरु की आज्ञा का महत्त्व जानने की वजह से हुआ।
जनार्दन स्वामी की आज्ञा पर संत एकनाथ के शरीर द्वारा जो अलग-अलग और कठिन कार्य हुए, उसके लिए आपका मन अनेक शंकाएँ ला सकता है कि ‘यह मैं कैसे कर पाऊँगा… यह तो मुझसे नहीं होगा… यह तो बहुत कठिन है… मैं तो स्त्री हूँ… मैं तो गरीब हूँ… मेरे साथ ऐसा नहीं हो सकता… मेरे घर में इतने सारे लोग हैं इसलिए यह नहीं हो सकता…।’ इससे आप समझ सकते हैं कि मन कार्य न करने के कितने कारण दे सकता है।
संत एकनाथ ने मन के सारे बहानों के भी पार जाकर श्रद्धा और भक्ति की वजह से और सबसे सर्वोपरि सत्य की प्यास की वजह से गुरु के आदेश का पालन किया। इसके अलावा उनके पास और कोई उद्देश्य तो बचा नहीं था, न ही और कोई प्रार्थना बची थी। वे केवल अंतिम सत्य जानना चाहते थे।
एकनाथ महाराज ने जीवनभर अपने गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए सुखी और संतुष्ट जीवन जीया। उनके जीवन में स्थाई संतुष्टि तब तक बनी रही, जब तक उन्होंने देह नहीं त्याग दी। आपको भी ऐसी ही स्थाई संतुष्टि हासिल करनी है। यही आपका असली लक्ष्य है। ऐसा नहीं है कि यह लक्ष्य बहुत बड़ा या असंभव है। एक बार आप इस बात को समझ जाएँगे तो कर्म से डरना बंद कर देंगे और ऐसी बातों में नहीं उलझेंगे कि ‘मुझसे यह कार्य हो पाएगा या नहीं, मैं कर पाऊँगा या नहीं।’ क्योंकि तब आप जान चुके होंगे कि समर्पित होने से बड़े से बड़े कार्य भी पूरे हो जाते हैं, बस इसके लिए यह ज़रूरी है कि जो भी कार्य सामने आए, उसमें अपनी ओर से सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना आरंभ करें।
संत एकनाथ का जीवन सन 1533 में शुरू होकर और 1599 में समाप्त हुआ। मृत्यु के समय उनकी देह गोदावरी नदी के किनारे थी। लोगों ने वह प्रसंग देखा, जहाँ पहले से ही मृत्यु की घोषणा हो चुकी थी। लोगों ने बड़ी तादाद में वहाँ आकर उत्सव मनाया। लेकिन मृत्यु से पूर्व ही कौन मर गया था, यह बात लोग नहीं जानते। लोगों को जब तक शब्दों में बताया नहीं जाता, तब तक उन्हें समझ में नहीं आता। इंसान की बुद्धि में इतनी ताकत नहीं होती कि वह ऐसी बातें सोच पाए। लोग बु़िद्ध की ताकत का इस्तेमाल खुद को उलझाने में और द्वंद पैदा करने में करते हैं कि ‘ऐसा क्यों हो गया, वैसा क्यों हो गया’ वगैरह-वगैरह। लेकिन बुद्धि को जब भक्ति मिलती है तो यह बुद्धि कुछ ऐसी बातें भी समझ सकती है, जिन्हें समझना बुद्धि के लिए, यहाँ तक कि विज्ञान के लिए भी नामुमकिन है। मृत्यु से पूर्व जो मर गया, वह एकनाथ नहीं था बल्कि जो प्रकट हुआ, वह था एकनाथ। जो सदा से था… है… और रहेगा…।
…सरश्री
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