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इस संसार में ऐसा कौन होगा जो सुखी, संतुष्ट और गौरवशाली जीवन जीने की अभिलाषा न रखता हो? हर कोई चाहता है कि वह और उसका परिवार खुशहाल जीवन जीएँ। ऐसे में सवाल उठता है कि वह कौन सा जादुई मंत्र है, जो आपकी इस चाहत को पूर्ण कर सकता है? वह है आत्मनिर्भरता का मंत्र, जो आपके जीवन को परिपूर्ण और गौरवशाली बनाता है।
सामान्यतः एक इंसान को चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, तब आत्मनिर्भर मान लिया जाता है जब वह अपने तथा परिवार के लायक कमा सके, कुछ सुख-सुविधाएँ, खाना-पीना जुगाड़ सके। लेकिन यह आत्मनिर्भरता का बहुत ही सीमित रूप है। आत्मनिर्भरता का स्वरूप इससे बहुत अधिक व्यापक है। सही मायने में आप तब आत्मनिर्भर होंगे, जब आप रिश्तों में आत्मनिर्भर होंगे, जब आपकी खुशी किसी बाहरी कारण पर निर्भर नहीं होगी।
आइए, रिश्तों में आत्मनिर्भरता को एक पति-पत्नी के उदाहरण से समझते हैं, जिनकी नई-नई शादी हुई थी। पत्नी अच्छे से घर सँभालती थी मगर उसे बाहर के काम-काज की, दुनियादारी की ज़्यादा समझ नहीं थी इसलिए वह अपने पति पर निर्भर थी। पति अपनी पत्नी से बहुत प्यार करता था और उसका बहुत ध्यान रखता था। वह उसे उन सभी कामों में मदद करता था, जिसमें वह कमज़ोर थी या कहें उन सभी कामों का भार उसने अपने कंधों पर ले लिया था। जिसका परिणाम यह हुआ कि पत्नी कभी कुछ नया सीख ही नहीं पाई और अधिकाधिक पति पर निर्भर रहने लगी। कुछ समय तक तो सब ठीक चलता रहा लेकिन धीरे-धीरे पति ने पत्नी को कंट्रोल करना शुरू कर दिया। वह उसे अपने हिसाब से चलाने लगा, ‘तुम इतना ही करो… यह मत करो… यह तो तुमसे होगा नहीं।’ पत्नी यदि हिम्मत करके कुछ करना भी चाहती तो पति उसे पहले ही कह देता, ‘रहने दो, यह तुम्हारे बस का काम नहीं है।’ जिस कारण पत्नी का आत्मविश्वास गिरने लगा।
कुछ साल बाद काम के बढ़ते बोझ से पति की झल्लाहटें शुरू हो गईं। ‘सब कुछ मुझे ही देखना पड़ता है… मुझे ही करना पड़ता है… तुम किसी काम की नहीं… दूसरों की बीवियों को देखो, घर भी सँभालती हैं और बाहर के काम भी करती हैं…।’ इस तरह एक ऐसा रिश्ता, जिसमें दोनों का बराबरी का स्थान था, उसमें पति सुपीरियर होता गया और पत्नी इनफीरियर। फलस्वरूप पत्नी उस रिश्ते में घुटन महसूस करने लगी। जिससे दोनों के बीच कहा-सुनी बढ़ने लगी और रिश्ते बिगड़ने लगे।
यदि पति-पत्नी के रिश्ते की इस कहानी को और आगे बढ़ाएँ तो एक और रिश्ते में आत्मनिर्भरता की भूमिका प्रकाश में आएगी। कुछ समय बाद उन्हें संतान हुई। पति से बिगड़े संबंधों की क्षतिपूर्ति पत्नी बेटे पर भरपूर लाड़-दुलार लुटाकर करने लगी। वह उसकी पल-पल केअर करती। वह 8-9 साल का हो चला था, फिर भी उसे अपने हाथों से खाना खिलाती, कपड़े-जूते पहनाती, उसके स्कूल के प्रोजेक्ट वर्क कर दिया करती। बेटा ज़रा-ज़रा सी बात पर, ‘ममा…ममा’ करता रहता और वह दा़ैडकर आती। इस तरह उसने अपने बेटे को पूरी तरह खुद पर निर्भर बना लिया और फिर वही कहानी दोहराई गई।
बेटा बड़ा होने लगा, वह अपने हर छोटे-बड़े निर्णय के लिए, काम के लिए माँ का मुँह ताकता। माँ भी उसे पूरी तरह से कंट्रोल करने लगी, ‘ऐसा करो, वैसा मत करो… अब यह पढ़ो… अब वह पढ़ो।’ लेकिन धीरे-धीरे उसके कामों को करते-करते माँ झल्लाने लगी। वह उसे बार-बार सुनाती, ‘इतने बड़े हो गए हो, फिर भी अपने ज़रा-ज़रा से काम खुद नहीं कर सकते… दूसरे बच्चों को देखो, वे अपना हर काम खुद करते हैं और एक तुम हो कि मुझे एक पल चैन से बैठने नहीं देते…।’ वह अपने सहेलियों में सुनाती, ‘मेरे बिना बेटे का ज़रा भी काम नहीं चलता, मैं ना रहूँ तो पता नहीं इसका क्या होगा?’ पति-पत्नी के रिश्ते में जो पत्नी खुद को ‘इनफीरियर’ महसूस करती थी, वह माँ-बेटे के रिश्ते में ‘सुपीरियर’ और ‘वॉन्टेड’ हो चली।
इस तरह रिश्तों में लोग जाने-अनजाने कभी प्यार तो कभी केअर के नाम पर दूसरों को खुद पर निर्भर बना देते हैं। उनकी छोटी-छोटी बातों में मदद करते हैं और उनका हर काम झट से कर देते हैं, जिससे दूसरे इंसान का विकास नहीं हो पाता, वह कुछ सीख नहीं पाता। परनिर्भर प्रवृत्ति बन जाने के कारण उसका कंट्रोल सदैव दूसरों के हाथ में ही रहता है। जिसके परिणामस्वरूप उसका आत्मसम्मान, आत्मगौरव (सेल्फ एस्टीम) हमेशा कुंठित ही रहता है।
ऊपरी तौर पर देखें तो उपरो्नत उदाहरण में पति के रिश्ते में पत्नी और फिर माँ-बेटे के रिश्ते में उसका बेटा परनिर्भर नज़र आता है। लेकिन यदि इसे दूसरे दृष्टिकोण से देखें तो स्वयं को आत्मनिर्भर समझनेवाला, दूसरों का कंट्रोल अपने हाथ में रखनेवाला इंसान ज़्यादा परनिर्भर हो चुका होता है क्योंकि वह हर वक्त उन्हीं के बारे में सोचता रहता है, उन्हीं की चिंता में डूबा रहता है। वह बेवजह सारा बोझ अपने कंधों पर लेकर चलता है, जिस कारण वह मानसिक और शारीरिक तौर पर दबाव और तनाव में रहने लगता है। यह उसके अहंकार तुष्टि का भी ज़रिया बन जाता है। क्योंकि कुछ लोग दूसरों का बोझ लेकर चलने में स्वयं को ‘महत्वपूर्ण’ और ‘वॉन्टेड’ महसूस करते हैं। वे लोगों को कहते हैं, ‘मेरे बिना तो इनका एक दिन भी गुज़ारा न हो।’
हालाँकि रिश्तों में परस्पर सहयोग (इंटरडिपेंडन्सी) होना चाहिए था मगर परनिर्भरता हो गई, लोग एक-दूसरे पर निर्भर रहने लगे। सारी सोच एक ही इंसान पर केंद्रित हो गई। ऐसे में वे कभी जान ही नहीं पाते कि वे पृथ्वी पर क्यों आए थे… मनुष्य जन्म क्यों मिला था… उन्हें कौन से सबक सीखने थे? वह मूल लक्ष्य तो बाजू में ही रह जाता है और सिर्फ एक इंसान के पीछे जीवन गुज़र जाता है। क्योंकि सामनेवाले को आत्मनिर्भर होने में सहयोग नहीं किया बल्कि उसे परनिर्भर बनाकर, उसके विकास के सारे रास्ते रोक दिए।
कोई इंसान ऐसा होता है, जो किसी से पूछे बिना कोई काम ही नहीं कर सकता। जैसे ‘यह शर्ट पहनूँ या वह पहनूँ, ऐसी हेयर स्टाइल करूँ या वैसी’ तो वह परनिर्भर है, फिर भले ही लाखों कमाता हो। एक इंसान को तब तक शांति नहीं मिलती, जब तक वह 4 लोगों को सलाह ना दे तो वह भी परनिर्भर है; एक इंसान तब तक खुद को सफल महसूस नहीं करता, जब तक बाहर के लोग आकर उसे ऐप्रिशिएट ना करें, वह भी परनिर्भर है। कुछ लोगों को हाथ में हर वक्त मोबाइल चाहिए। डोर बेल बजने पर दरवाज़ा खोलने जाएँगे तो भी वे हाथ में मोबाइल लेकर ही जाएँगे। यह परनिर्भरता की अति है।
कहने का तात्पर्य- अगर आप किसी भी बात के लिए दूसरे पर किसी भी तरह से निर्भर हैं तो आप आत्मनिर्भर नहीं हैं। परस्पर सहयोग करना, चीज़ों का उपयोग करना अलग बात है लेकिन दूसरे के बिना बिलकुल अपंग हो जाना परनिर्भरता है।
रिश्ते में दोनों पक्ष खुश हों, संतुष्ट हों और गौरवशाली बने रहें, इसके लिए उनका आत्मनिर्भर होना ज़रूरी है। आत्मनिर्भरता रिश्तों में पूर्णता लाती है, उन्हें स्वस्थ रखती है। एक-दूसरे का ध्यान रखें, उन्हें सहयोग करें मगर पंगु न बनाएँ, उनका विकास होने में मदद करें तभी आपका और आपके प्रियजनों का जीवन गौरवशाली बनेगा।
– सरश्री
4 comments
Mina kakodkar
Dhanywad Sirshree for being in my life
Chetan Eknath Chavan
Dhanyawad Sirshreeji for Ultimate Grace and Peace & Dhanywad Sirshreeji for Being in my Life
Ishwar Chikne
धन्यवाद सरश्री जी
Rakesh Rajendra kamble
Dhanyawad sirshree 🙏🙏