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अध्याय का उप शीर्षक पढ़कर आप सोच रहे होंगे,‘रेडी- स्टेडी-गो’ के बीच में ‘स्लीप’ कैसे आ गया? दरअसल यह ‘स्लीप’ सुस्त लोगों द्वारा लगाया हुआ है। उनके लिए यह वाक्य यही खत्म हो जाता है। मगर आप इस ‘स्लीप’ को एक्टिव बनाकर, ‘गो’ तक लाएँ और सुस्ती को दूर करने का नया दृष्टिकोण अपनाएँ। क्योंकि यह स्लीप कुंभकरण की सुस्ती है, जिसका अंत असफलता और पतन है, जो इंसान के सारे गुणों पर अकेले ही भारी पड़ती है।
आज-कल की युवा पीढ़ी में यह रोग तेज़ी से ङ्खैल रहा है, ऐसा उनके माता-पिता को लगता है। लेकिन समझनेवाली बात यह है कि जो सुस्ती नज़र आती है, क्या वह वाकई सुस्ती है? क्या केवल देरी से उठना, हर काम अपने समय पर आराम से करना, जब भी मौका मिले बिस्तर पर पड़े रहने को सुस्ती कहा जाएगा? नहीं! दरअसल सुस्त होना और सुस्त दिखना, ये दो अलग बातें हैं।
कभी-कभी कनफ्यूज़न या किसी काम की प्रेरणा न होने की वजह से भी लोग सुस्ती की स्थिति में आ जाते हैं, इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि वे सुस्त हैं। जैसे एक विद्यार्थी सुबह जल्दी उठकर, दिन-रात पढ़कर परीक्षाएँ देता है। फिर जैसे ही उसकी परीक्षा खत्म होती है, अगले ही दिन से वह बिलकुल आलसी हो जाता है। सुबह लेट उठना… लेट नहाना… लेट खाना… ऐसे बच्चों के लिए उनकी माँ अकसर कहा करती हैं, ‘स्कूल क्या बंद हुए, यह तो बिलकुल सुस्त और निकम्मा हो गया है।’ परंतु इसे सुस्ती नहीं बल्कि अप्रेरित अवस्था कहेंगे। कर्मरत् रहने हेतु किसी प्रेरणा या उद्देश्य के अभाव में ऐसा होता है। यदि आप इस विषय पर गहराई से मनन करें तो देखेंगे कि विश्व में सुस्त लोग कम हैं और अप्रेरित लोग ज़्यादा हैं।
सुस्ती का एक और बहुत बड़ा कारण होता है- कनफ्यूज़न। जब समझ न आए कि क्या करना है, क्यों करना है, कैसे करना है तब भी इंसान सुस्त हो जाता है। आज की युवा पीढ़ी सुस्त कम, अप्रेरित और कनफ्यूज़ ज़्यादा है। जिस काम को करने में पूरी स्पष्टता और मोटिवेशन है, उसे करने में किसी को सुस्ती नहीं आती।
ऐसी दिखावटी सुस्ती को आप आगे दिए गए कारगर तरीकों से दूर कर सकते हैं।
पहला तरीका- सुस्ती के आगे कोई दमदार मोटिवेशनवाला कर्म रखें। उदाहरण के लिए गर्मियों की छुट्टियों में बहुत से पैरेंट्स अपने बच्चों की मॉर्निंग स्पोर्ट्स क्लास लगा देते हैं। इसके बड़े ङ्खायदे होते हैं। बच्चा सुबह समय पर उठता है, उसका शारीरिक व्यायाम भी होता है, वह किसी खेल में निपुणता प्राप्त करता है और टी.वी., मोबाइल जैसी चीज़ों से दूर रहता है। इस तरह छुट्टियों में भी बच्चे का रूटीन बना रहता है। ऐसे ही जब कोई इंसान किसी प्रतियोगिता में भाग लेता है तो उस समय उसकी कार्यक्षमता और ऊर्जा बढ़ जाती है। क्योंकि उसके सामने जीतने का दमदार लक्ष्य होता है। अर्थात मोटिवेशन और लक्ष्य इंसान को कर्मरत् रखते हैं।
दूसरा तरीका- काम से जुड़े कनफ्यूज़न (संभ्रम) को दूर करना। कनफ्यूज़न के साथ किसी काम को करने का मन नहीं होता और सुस्ती चढ़ जाती है। ऐसे में सबसे पहले काम की स्पष्टता हासिल कर, कनफ्यूज़न को दूर करें। अन्यथा किसी योग्य इंसान से सलाह लें। पर सलाह लेते समय ध्यान रखें कि सलाह देनेवाला खुद कनफ्यूज़ न हो।
तीसरा तरीका- यदि आस-पास कोई योग्य इंसान न मिले तो कम से कम कुदरत से प्रार्थना अवश्य करें कि ‘मेरा संशय दूर हो, मुझे सुलझन का आनंद मिले।’ यह कुदरत को आपके द्वारा दिया गया संकेत है कि आप अपने कनफ्यूज़न से बाहर आना चाहते हैं। जिसके परिणामस्वरूप कुदरत स्वयं आपके लिए कोई ना कोई मार्ग तलाश लेगी। जैसे आप तक कोई अच्छी पुस्तक पहुँच जाएगी या कोई योग्य इंसान पहुँच जाएगा या आप ऐसा कोई प्रोग्राम देख लेंगे, जो आपका कनफ्यूज़न दूर करेगा। कुदरत के पास मदद भेजने के हज़ारों चैनल हैं, आपको प्रार्थना करके अपना चैनल खोलना है।
अब ऐसी सुस्ती को समझते हैं जिसके पीछे कनफ्यूज़न या अप्रेरित अवस्था नहीं बल्कि घोर तमोगुण होता है। ऐसे इंसान को मालूम होता है कि उसे उठना है, काम करना है, ङ्खिर भी वह उस काम को टालने और शरीर को आराम में बनाए रखने के अनेकों बहाने खोज लेता है। ऐसी ‘‘सस्ती’’ सुस्ती को भगाने के लिए सबसे पहले ज़रूरी है कि इंसान अपने भीतर सुस्ती के दर्शन कर, उसे स्वीकार कर पाए, उससे होनेवाले नुकसान को समझ पाए। जब सुस्ती से मुक्ति की इच्छा उत्पन्न होगी तभी रास्ते निकलेंगे वरना एक अज्ञानी तो उसी अवस्था में बेहोशीभरा जीवन जीकर मर जाता है।
सुस्ती से मुक्ति का एक सिद्धांत है। जिसके अनुसार सुस्त इंसान कर्म नहीं करता है क्योंकि कर्म न करने में उसे सुख मिलता है और कर्म करने में दुःख मिलता है। इंसान की वृत्ति होती है कि जिसमें उसे सुख मिलता है, वह उस काम को बढ़ाता है और जिसमें दुःख मिलता है, उसे टालता रहता है। सुस्ती को भगाने के लिए आपको इस सिद्धांत को उलटा करना होगा यानी आपको कर्म करने में सुख मिले और कर्म न करने में दुःख मिले।
अब इस बात पर मनन करें कि आपको किस काम में सुख मिल रहा है और जो सुख मिल रहा है, क्या वह वाकई सुख है? इंसान जब प्रश्न उठाता है तभी उसे जवाब मिलते हैं।
आगे से जब भी आप किसी करने योग्य कर्म को टालें तो पहले स्वयं से पूछें, उस समय आपको क्या सुख मिला? साथ ही यह भी पूछें कि उस कर्म को न करने से क्या-क्या दुःख मिला? मनन करने पर आप जान पाएँगे कि जिसे सुख समझा जा रहा था, वह क्षणिक सुख था और उसके बदले में आपने बहुत दुःख भुगते। इस तरह से अपनी विवेक बुद्धि बढ़ाएँ और सही-गलत की पहचान करना सीखें।
इसके अतिरिक्त आप कुछ और तरीकों पर भी कार्य कर सकते हैं। जैसे-
- ‘थोड़ा करें मगर आज करें’ का सूत्र याद रखें। मन जब किसी काम को टाले तब उसे यह बात याद दिलाएँ कि पूरा नहीं तो थोड़ा काम ज़रूर करें।
- यदि आपकी सूची में बहुत काम इकट्ठे हुए हैं तो उनमें से पसंद न आनेवाले काम पहले करें क्योंकि पसंद आनेवाले काम आप बाद में भी आसानी से कर ही लेंगे।
- यदि आपका मन बहाने दे कि ‘मेरा काम करने का मूड नहीं है इसलिए मैं नहीं करूँगा’ तो उससे कहें, ‘काम मत करो मगर ङ्खिर कुछ और भी मत करो।’ वरना कई बार इंसान काम टालकर मनोरंजन में जाना चाहता है इसलिए उसे कहीं और भटकने का अवसर न दें।
- यदि कोई काम करने में जटिल लग रहा है इसलिए सुस्ती आ रही है तो उस काम को छोटे-छोटे भागों में बाँटकर करें। इससे वह काम कठिन नहीं लगेगा और आसानी से पूरा भी हो जाएगा।
यह पंक्ति आपने सुनी होगी, ‘जहाँ चाह, वहाँ राह’, यदि सुस्ती से मुक्ति की चाह उठी है तो राह भी अवश्य मिलेगी… बस! ज़रूरत है, उसे समझकर स्वीकार करने की और उस पर काम शुरू कर, नया दृष्टिकोण अपनाने की।
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