जीवनोपयोगी आवश्यकताओं की पूर्ति में आज मनुष्य ऐसा फँसा है कि प्रकृति से दूर-दूर होता जा रहा है। लेकिन आज वसुंधरा दिन के अवसर पर यह मौका मिला है कि हम कुछ देर रुककर हमारी प्रकृति का विचार करें। इस वसुंधरा का विचार करें, जिससे हमारा जीवन संचालित है। ‘इको फ्रेंडली’ (पर्यावरणपूर्वक) समाज की दिशा में कदम बढ़ाने का विचार करें।
इकॉलॉजी लॅटिन भाषा पर आधारित शब्द है। ‘इकॉस’ मतलब घर और ‘लोगॉस’ मतलब अभ्यास। अर्थात इकॉलॉजी है उस महान घर का अभ्यास, जिसे हम ‘पृथ्वी’ कहते हैं। पृथ्वी हमारा घर है।
हमारा शरीर भी पृथ्वी का अंश है या दूसरे शब्दों में कहें तो पृथ्वी हमारे शरीर का विस्तारित रूप है। आज आवश्यकता है कि हम अपने इस विस्तारित रूप के रक्षण के लिए ज़रूरी प्रयास करें। वरना हम जानते हैं कि प्राकृतिक संसाधन धीरे-धीरे पृथ्वी के गर्भ से कम होते जा रहे हैं। इन्हें अगली पीढ़ियों के लिए बचाना है तो उसके लिए ‘ग्रीन थिंकिंग’, ‘इको थिंकिंग’ अपनाने की ज़रूरत है।
आज लोग प्राकृतिक जीवन को भूल रहे हैं, जिसका असर प्रकृति पर भी दिखने लगा है। मौसम का चक्र बदलना, बेमौसम बारिश, ग्लोबल वॉर्मिंग आदि समस्याएँ इसी का परिणाम है। पेड़-पौधों की उपयुक्तता समझना बंद हो गया इसलिए उन्हें अपने मतलब के लिए काटा जाने लगा है। जबकि जिस प्रकृति को हम काट रहे हैं, उसी प्रकृति पर हमारा अस्तित्त्व टिका हुआ है।
पुराने युग के लोग प्रकृति के करीब थे क्योंकि वे इन बातों को भली-भाँति जानते थे। जो लोग जंगलों में रहते थे, उन्होंने जो दृश्य देखे थे, उससे उन्हें पेड़-पौधों में छिपे औषधीय गुणों का ज्ञान मिला था।
उदाहरण के तौर पर अगर जंगल के किसी इलाके में कोई ज़हरीला साँप रहता हो तो उसके काट लेने पर, ज़हर उतारने का इलाज उन्हीं पेड़-पौधों में मिलता था, जो उस इलाके में पाए जाते थे। प्रकृति की महानता देखिए… जहाँ समस्या है, वहीं पर उसका इलाज भी उपलब्ध है। मगर इंसान यह भूलकर अज्ञानी बन बैठा है और सामने रखा हुआ इलाज भी पहचान नहीं पा रहा है। उलटा अज्ञान में उन दवाइयों के भंडार को नष्ट करते जा रहा है।
हम सभी अपने स्वार्थ के लिए पर्यावरण का विनाश करने के मार्ग पर हैं। हम अपनी बेहोशी में पर्यावरणीय संसाधनों का इस्तेमाल लापरवाही से करते जा रहे हैं। लेकिन हमें यह याद रखना होगा कि हमारे द्वारा लापरवाही से की गई हर छोटी क्रिया का परिणाम पर्यावरण पर हो रहा है। आइए, इसे एक उदाहरण से समझें।
एक इंसान शाम के वक्त किसी झील के किनारे जाकर बैठा था। दूसरी तरफ दूसरा एक इंसान उसी झील के पानी में अपना पैर नीचे लटकाकर आराम से बैठा था। पहला इंसान अपने विचारों में खोया हुआ था और आदतवश पानी में पत्थर फेंक रहा था। उस पत्थर से पानी में कुछ तरंगें उठीं और उन तरंगों पर तैरता हुआ एक बिच्छू दूसरी तरफ बैठे इंसान के पैर तक पहुँचा और उसने उसे डस लिया। उस इंसान को डॉक्टर के पास लेकर गए। डॉक्टर ने अपने असिस्टंट को इंजेक्शन तैयार करने के लिए कहा। असिस्टंट ने दवाई की बोतल पर सही लेबल न होने की वजह से सीरिंज में गलत दवाई भर दी और डॉक्टर के गलत इंजेक्शन लगाते ही उस इंसान की मृत्यु हो गई।
अब इस घटना में उस इंसान के मृत्यु का ज़िम्मेदार कौन है? वह इंसान जो पानी में पैर लटकाकर बैठा था या वह जिसने पानी में पत्थर फेंका या डॉक्टर का वह असिस्टंट, जिसने सीरिंज में गलत दवाई भरी थी। असली दोष किसका है?
यहाँ दोषी कोई एक नहीं, यह सभी के कर्मों का मिला-जुला असर है। जिसने पत्थर फेंका, उसके खयालों में भी नहीं होगा कि मेरे पत्थर फेंकने से क्या होगा, जबकि उसका असर तो हुआ।
बिलकुल इसी तरह जाने-अनजाने में हमारे द्वारा की गई क्रियाओं का असर हमें तुरंत दिखाई नहीं देता लेकिन कुदरत पर कहीं न कहीं असर हो रहा है। हम अपनी बेहोशी में क्रिया कर जाते हैं लेकिन उसके परिणामों का भुगतान हमारी आनेवाली पीढ़ी को अपना जीवन देकर करना पड़ सकता है।
जैसे कि आप जो चीज़ें अपने शौक के लिए खरीद रहे हैं, हो सकता है उन्हें बनाने के लिए कई बेज़ुबान जानवरों को मारा गया हो, पेड़-पौधों को नष्ट किया गया हो। ऐसे में आपके शौक का असर किसने भुगता, किस तरह भुगता और अगर आपका यह शौक पूरा नहीं हुआ होता तो आपकी ज़िंदगी में ऐसा कौन सा तूफान आनेवाला था?
आज समय आ चुका है कि हम इन बातों पर गंभीरता से विचार करें। इस पर मनन होगा और सही समझ जगेगी तब हम ज़िम्मेदारीपूर्ण व्यवहार कर पाएँगे। हमारी क्रियाओं से अपनी वसुंधरा को और अधिक नुकसान न पहुँचे इसलिए हम सजग हो पाएँगे।
वसुंधरा के प्रति संवेदनशील, ग्रहणशील होने पर हम जान पाएँगे कि पर्यावरण रक्षण के लिए हमें कौन से कदम उठाने चाहिए। अगर हम ‘इकॉलॉजिकल थिंकिंग’, ‘ग्रीन थिंकिंग’ अपनाते हैं तो पर्यावरण के रक्षण के विचार से हर कार्य कर सकते हैं। हम जहाँ कहीं भी हैं, वहीं से इसकी शुरुआत कर सकते हैं।
हमारी एक छोटी सी क्रिया, जैसे बेवजह चलनेवाले लाईट और पंखे बंद करने से बिजली की खपत में बचत हो सकती है। छोटे-छोटे पौधे लगाना, ऑफिस में कुछ प्रिंट आऊट्स निकाल रहे हैं तो वे कम से कम कागज़ों का इस्तेमाल करते हुए निकालना…, प्लास्टिक बैग की जगह कपड़े के बैग इस्तेमाल में लाना…, कोई दुकानदार प्लास्टिक का बैग हाथ में थमा रहा है तो उसे लेने से इनकार करना…, ऐसी कईं बातें हम आज और अभी से अपना सकते हैं। इनमें नुकसान कुछ नहीं है लेकिन उनके फायदे बहुत हैं। हाँ! यह ज़रूर है कि यह सब करने के फायदे हमें तुरंत दिखाई नहीं देंगे लेकिन इस कारण उन्हें अपनाने में टालमटोल नहीं होनी चाहिए।
खरीददारी करते वक्त खुद को ‘ज’ कि ‘च’ सवाल पूछने की आदत डालना भी पर्यावरण की रक्षा के लिए बहुत मददगार साबित हो सकता है। कुछ चीज़ें खरीदते वक्त खुद से यह सवाल ज़रूर पूछना चाहिए कि ‘यह जो चीज़ मैं खरीद रहा हूँ, वह मेरी ज़रूरत है या चाहत?’
हम सब जानते हैं जैसी डिमांड होती है, वैसी सप्लाय होती है। अगर हम अपने शौक के लिए ऐसी चीज़ें डिमांड करते रहेंगे, जिनके बनने की क्रिया में पर्यावरण की हानि हो रही है तो ऐसी चीज़ें बनती रहेंगी और पर्यावरण की हानि होती रहेगी।
अगर थोड़ा समय रुककर, हम ऐसा विचार करें कि ‘इस वस्तु की मुझे जरूरत है या चाहत? और यदि चाहत है तो क्या मैं इस चाहत को कम कर सकता हूँ?’ इससे हम खुद में एक परिवर्तन देखेंगे। ज़्यादा से ज़्यादा लोग ऐसी सोच अपनाएँगे तो उन चीज़ों की डिमांड कम होगी, जिसके परिणामस्वरूप आपूर्ति (सप्लाई) भी अपने आप कम हो जाएगी। परिणामतः ऐसी ची़ज़ें कम बनने लगेंगी और हम पर्यावरण रक्षण में अपना योगदान दे पाएँगे।
लेकिन आज-कल लोग ‘इको फ्रेंडली’ की जगह ‘ईगो फ्रेंडली’ हो गए हैं। ‘ईगो फ्रेंडली’ यानी वे अपने अहंकार की ही सेवा करते रहते हैं। आपको जानकर हैरानी होगी कि इस अहंकार की भी दवा कुदरत ने पौधों के रूप में बनाकर रखी है। डॉ. एडवर्ड बॅच ने फूलों पर संशोधन करके हमारे मन के स्वभाव के लिए कुछ दवाइयाँ बनाई, जो आज भी उपलब्ध हैं। इन दवाइयों द्वारा बहुत सारे मनोविकारों का भी इलाज हो सकता है! मनुष्य की प्रकृति के प्रति उदासीन दृष्टि ही हमें कितनी समस्याओं के हल ढूँढ़ने में बाधक साबित हो रही है। अतः हमें प्रकृति के प्रति जागरूक होना होगा।
हमारी थोड़ी सी जागरूकता हमें अंदर और बाहर से ‘इको फ्रेंडली’ बना सकती है। अर्थात बाहर हम पर्यावरण के प्रति जागरूक होकर प्रकृति के करीब जा सकते हैं और अपने अंदर, अपनी इनर इको से भी ट्यून्ड हो सकते हैं।
एक उच्चतम विकसित समाज के निर्माण में ऐसे लोगों का योगदान महत्वपूर्ण है जो अंदर और बाहर से ‘इको फ्रेंडली’ है। इको फ्रेंडली समाज के लिए आवश्यकता है इको फ्रेंडली लोगों की क्योंकि जो बाहर के पर्यावरण में है, वही हमारे अंदर समाया हुआ है। ब्रह्माण्ड की तरह हमारे अंदर भी गैलेक्सीज़ हैं। हमारे अंदर भी पूरा ब्रह्माण्ड है। इस अंदर के ब्रह्माण्ड से कौन सी एको (प्रतिध्वनि) आ रही है उसे हमें समझना होगा। तभी हम इस वसुंधरा का रक्षण कर पाएँगे। एक उच्चतम विकसित और इको फ्रेंडली समाज बनाने में सफल होंगे।
…सरश्री
4 comments
Aniket
Bahothi Sundar
Dhanywad kudarat,
Happy Thoughts
Dhanywad Sirshree…
Pramod Mahitkar
वसुधैव कुटूम्बकम. हमारे शरिर के इस विस्तारित रुप को अगर हमे अच्छा रखना है तो” मनन” आश्रम पर जाकर ही ऊर्जावान होकर हमे कार्य करना होगा धन्यवाद सरश्री आपके इस बहुमोल मार्गदर्शन हेतू.
दिनकर मोरे
धन्यवाद. सरश्री
प़ढकर बहोत आनंद मिला खुद इसका पालन कर दुसरो
को इस राह पर चलने के लिएहम निमित्त बनेंगे
धन्यवाद🙏🙏
Neelima Shinde
Vasundhara, my yani MSY ki real mother,ham ne aap ko jobhi taklife di hai kshama chahte hai, krupya apana love kam na karo,he self Jo bhi yogya kadam hai hum sabse karva lo, dhanyawad guru