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किसी भी चीज़ से मुक्ति पाने के लिए, हमें सबसे पहले उसे समझना होगा। तो पहले हम माया को समझने का प्रयत्न करते हैं – ब्रह्माण्डीय भ्रम – इससे मुक्ति पाने से पूर्व इसे जानना होगा। यदि माया की लोकप्रिय अवधारणा की बात करे तो भौतिकवाद की तस्वीर सामने आ जाती है, जिसमें आप भौतिक सुख व संरक्षण और सुविधाओं को शामिल कर सकते हैं, जैसे वैभव, धन, आलीशान कारें, अच्छे उपकरण आदि भौतिक वस्तुओं की श्रेणी में आते हैं। भले ही इस तरह माया का विचार मन में आता है पर ये एक दिखावटी व्याख्या है। बौद्धिक रूप से इसका अर्थ है कि नामों और रूपों का सारा दिखने योग्य संसार। अगर और गहरे स्तर पर देखें तो इसे आप हिंदी में कह सकते है, ‘मैं आया’ जो झूठे अहं ‘मैं’ की ओर संकेत करता है – वह झूठी पहचान जिससे हम स्वयं को जोड़ते हैं।
वह असली ‘मैं – हम सही मायनों में कौन हैं – हमें इस अस्तित्व को वैद्यता या समर्थन देने की कोर्इ जरूरत नहीं है, यह तो अस्तित्व ही है, इसे स्वयं को परिभाषित करने के लिए कोर्इ इच्छा या विश्वास नहीं चाहिए। इसे अपने अस्तित्व के लिए कोर्इ विचार नहीं चाहिए, यह वह परिवर्तनहीन चेतना है जिसमें सोच पैदा होती है। वहीं दूसरी ओर, झूठा ‘मैं’ – वह व्यक्तित्व जिसे हम अपना मान कर थामे रहते हैं – वह एक भ्रम है कि हम विश्वासों और सोच के ढांचे के सहयोग के बिना जी ही नहीं सकते।
हमें एक उदाहरण से इस ब्रह्माण्डीय भ्रम की प्रकृति को समझना होगा। एक बड़े सर्प के बारे में सोचें जो एक जीवित मेंढक को अपने मुख में पकड़ रहा है। आप सोच सकते हैं, ‘बेचारा मेंढक! इसे तो सर्प अभी निगल जाएगा।’ मेंढक को अभी अंदाजा नहीं कि सर्प उसे खाने वाला है। मेंढक अब भी अपनी जीभ निकाल कर मक्खियाँ खा रहा है। जब सर्प अपना सिर उठाता है तो मेंढक भी उसके साथ ऊपर उठता है। मेंढक को यह ध्यान तक नहीं आता कि वह किस जानलेवा चंगुल में है। जब सर्प अपना सिर उठाता है तो मेंढक को लगता है कि उसे मक्खियों को निगलने में आसानी हो रही है, वे उसे आसानी से दिख रही हैं। अगर मेंढक को बताया जाए कि वह सर्प की पकड़ में है और उसे कभी भी निगला जा सकता है, तो भी वह इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं होता।
इस प्रसंग में, मेंढक झूठे ‘मैं’ का प्रतीक है और सर्प किसका प्रतीक है? क्या यह भौतिक जगत है? नहीं। असली सर्प तो हमारे भीतर है। यह विश्वास और प्रवृत्तियों का भीतरी जगत है जिसे वास्तविक ‘मैं’ भोग करता है। इसे आप अपने दिमाग में चल रहा स्वर या विचारों की निरंतर जुगाली भी कह सकते हैं जो इच्छाओं और अज्ञान के इस सर्प को स्थायी बनाए रखता है। दिमाग में चल रहा स्वर, अनावश्यक विचारों का निरंतर प्रवाह है जो लगातार वर्तमान क्षण की परख करता रहता है। ये विचार मन को उन विषयों की ओर धकेलते हैं या उनसे दूर ले जाते हैं, जिनसे उनका आकर्षण या विकर्षण होता है।
मन को अपनी ओर आकर्षित करने वाले विचार वे होते हैं जो आपके जीवन की अनुकूल या सुखद घटनाओं से जुड़े हैं जैसे ‘मैं वीडियो गेम खेलना चाहता हूँ।’, ‘मैं अच्छा संगीत सुनना चाहता हूँ।’ ‘मैं चाहता हूँ कि मुझे सम्मान और सराहना मिले।’ इन विचारों से क्षणिक तुष्टी मिलती है। ऑनलाइन चीजें ऑर्डर करना और घर बैठे सामान पाने जैसी सुविधाओं से इन विचारों को और बढ़ावा मिल रहा है। क्षणिक संतोष या प्रसन्नता पाने की चाह कभी पूरी नहीं होती।
विकर्षण से भरे विचार वे हैं, जो आपके जीवन में अनचाहे हालात लाते हैं। वे ऐसे लोग, हालात या वस्तुएँ हैं, जिन्हें आप पसंद नहीं करते जैसे, ‘मैं फेल नहीं होना चाहता।’, ‘मैं अपनों को दूर नहीं करना चाहता।’, ‘मैं भावात्मक असहजता नहीं सह सकता।’ ‘मुझे अपमान या निंदा पसंद नहीं है।’, ‘ मुझे ये गर्मी पसीना, धूप या चिपचिपा मौसम पसंद नहीं है।’, ‘मुझे यह आदमी पसंद नहीं, वह मेरी इज्जत नहीं करता।’ आदि।
आकर्षण और विकर्षण का यह दबाव ही मायारूपी सर्प की जकड़न है जो मनुष्य के जीवन को निगल जाती है। अगर हम मेंढक को उसकी सेल्फी यानी कैमरे से अपनी ही तस्वीर लेने को कहें, तो उसे पता चलेगा कि वह तो सर्प के मुख में है। अनेक वर्षो से बंधनों में रहने के कारण, हम अक्सर स्व के झूठे जाल में उलझ जाते हैं। हम अपनी आत्म-छवि की रक्षा करना चाहते हैं जो विश्वासों, प्रवृत्तियों तथा उन मूल विचारों से मिल कर बनी है जो हमारे मूल्यों और चुनावों का संरक्षण करती है। अगर हम वर्तमान क्षण में सहज भाव से अपने भीतर के गहन मूल्यों को देखें, तो यह स्पष्ट होगा कि हम दिमाग में चलने वाला यह स्वर नहीं हैं, हम ये प्रवृत्ति और हमें अपने वश में करने वाली इच्छा नहीं हैं। तब हमें पहली बार एहसास होगा कि हमारे भीतर उन अवांछित विचारों से छूट पाने का चुनाव है, जो अहं का झूठा जाल बुनती हैं। हमें अपनी सेल्फी लेनी होगी यानी हमें गहरार्इ से अपने मन की कारीगरी को परखना होगा।
जब रात के अंधेरे में एक रस्सी सर्प लगने लगती है, तो हम उस मायावी सर्प को मारने के लिए लाठी तलाशने लगते हैं, हम टॉर्च जला कर उस सर्प की वास्तविकता को जानने का प्रयत्न नहीं करते। ठीक इसी तरह, अज्ञान के अंधकार में, हम अवचेतन रूप से स्वयं को मन और शरीर मानते हुए, दिमाग में चल रहे इन विचारों को बहुत गंभीरता से लेते हैं। हम इच्छाओं को पूरा करने के लिए दबाव महसूस करते हैं और हमारी आत्म-छवि को बढ़ाने वाली प्रवृत्ति के प्रवाह में बह जाते हैं। इस तरह हम सुख-दुख, अपमान-प्रशंसा, जलन-सहानुभूति, अतीत-भविष्य, सफलता-असफलता और करणीय-अकरणीय आदि के जाल में उलझ जाते हैं हमारे निर्णय केवल इन्हीं बातों पर आश्रित हो जाते हैं कि हमें सुखद अनुभवों को जीवन में शामिल करते हुए, दुखद अनुभवों को जीवन से बाहर ले जाना है। इस तरह पूरा जीवन बीत सकता है और हमें पता भी नहीं चलता कि हम माया के पंजों में जकड़े हुए हैं। यह भ्रम हमारे भीतर छिपी प्रवृत्ति के तौर पर रहता है और हमारे रोजमर्रा के जीवन को संचालित करते हुए, हमें यांत्रिक रूप से चुनाव करने पर विवश कर देता है जो हमारे मन में पहले से प्रोग्राम की गर्इ पसंद या नापसंद पर आधारित होते हैं।
जीवन में आनेवाले हालात तटस्थ होते हैं। मन ही उन्हें सकारात्मक या नकारात्मक रूप देता है और हम उन्हें पसंद करते हैं या उनसे दूर जाना चाहते हैं। हम सही मायनों में हालात से नहीं भाग रहे, हम इसके बारे में अपनी ही भावनाओं से दूर जाना चाह रहे हैं। हम उदासी, भय, उद्वेग या तनाव का अनुभव करते हैं। हम टी.वी., खेल, गपशप, फोन पर बातचीत, ज्यादा खाने, घूमने, भविष्य की कल्पना करते हुए या अतीत के बारे में सोचते हुए इनसे बचने का प्रयत्न करते हैं, हम इन गतिविधियों में लीन होकर अपनी असहज भावनाओं से छुटकारा पाना चाहते हैं। परंतु ये भावनाएँ बनी रहती हैं। ये कहीं नहीं जातीं, हमारे ही भीतर दबी रहती हैं और समय पाते ही फिर से उभर आती हैं।
यदि हम अपनी ही इच्छाओं की पूर्ति के पथ पर चलते रहे तो पाएँगे कि हमारे मन को शांत करने वाले आनंददायक अनुभवों की मात्रा की आवश्यकता बढ़ती जा रही है। पूरे दिन की सैर के बाद भी, हम घर आते ही टी.वी. चलाकर बैठ जाते हैं। हम उत्तेजना के घटने से पैदा होनेवाले खालीपन या अधूरेपन को सहन नहीं कर पाते। यही ब्रह्माण्डीय भ्रम का खेल है। माया के इस खेल को अच्छी तरह समझने के लिए, हमें अपने मन के भीतर चलनेवाली कारवार्इ का पूरी र्इमानदारी से निरीक्षण करना होगा – हम असहज भावों से उबरने के लिए किस तरह की लत या बुरी आदतों को पैदा कर रहे हैं।
हो सकता है कि आरंभ में हमारी छिपी आदतों व स्वभाव का सामना करने में कठिनार्इ हो, क्योंकि इतने वर्षो से हम इन्हें ही समर्थन देते आए हैं। हालाँकि, धीरे-धीरे अभ्यास करने से हम मन की आदतों और प्रवृत्तियों से विरक्त होने का साक्षी बन सकते हैं, हम स्वयं ही अपने विचारों से विरक्त होने के साक्षी होने लगते हैं। तब भीतर से उठनेवाले विचारों और भावनाओं का अनुभव करना पूरी तरह से प्रयासहीन हो जाएगा। हम उन विचारों को उचित प्रकार से देख सकेंगे, जो एक गहन वास्तविकता रच रहे हैं, वे उन भ्रामक रचनाओं की तरह हैं, जैसे हमारी चेतना की उपस्थिति के आकाश में आनेवाले बादल, जो अपने-आप आते-जाते रहते हैं। अपने जागरण की यह उपस्थिति व दृढता शांति, प्रेम व आनंद को प्रकट करती है।
इस जागरण के फलस्वस्वरूप धीरज बढ़ता है, कर्इ तरह की लतों व आदतों से छुटकारा मिलता है और नए विकल्पों के लिए प्रतिक्रिया देने की योग्यता आती है। इसके अलावा, हमें सच्ची मुक्ति के परमानंद में मग्न रहना आ जाता है।
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