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रामायण के अनुसार भगवान श्रीराम को 14 साल के वनवास पर भेजा गया था। 2014 यह साल में आप भी वनवास पर जा सकते हैं। 14 वर्षों के बड़े वनवास पर नहीं बल्कि एक छोटे वनवास पर, जिससे आपकी आध्यात्मिक उन्नति होगी।
यहाँ पर वनवास लेने का अर्थ एक निश्चित समय अवधि निर्धारित कर, उस दौरान निम्नलिखित उद्देश्यों के लिए प्रयास करना है-
अपनी इंद्रियों को अल्प वनवास पर भेजना
सुख-सुविधाओं और गैजेट्स को अल्प वनवास पर भेजना
अंतिम लक्ष्य पर मनन कर उसमें दृढ़ता पाना
लक्ष्य के लिए अपने शरीर, मन और बुद्धि को प्रशिक्षित करना
श्रीराम ने उपरोक्त उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही वनवास धारण किया था। उनके लिए राजमहल में रहकर राजपाट सँभालते हुए रावण को मारने का लक्ष्य पाना संभव न था और रावण दूर लंका में था। अतः वे अयोध्या को छोड़ पहले वन गए और फिर वहाँ पूरी तैयारी कर लंका गए। मगर आपको ऐसा करने की जरूरत नहीं है क्योंकि आपको तेजसंसारी बनकर, संसार में रहते हुए ही अपना लक्ष्य प्राप्त हो सकता है। आपका लक्ष्य (स्वअनुभव, आत्मसाक्षात्कार) भी आपके अंदर ही है और दस सिरोंवाला रावण (विकार, अहंकार, गलत आदतें) भी आपके अंदर ही है। अतः आपको शारीरिक तौर पर कहीं और जाने की जरूरत नहीं है। आपको संसार में रहते हुए, अपने सांसारिक दायित्वों को पूरा करते हुए ही आंतरिक रूप से बीच-बीच में कुछ समय के लिए वनवास पर जाना है ताकि आपमें लक्ष्य के प्रति दृढ़ता बढ़े और आप उसके लिए तैयार हो पाएँ।
अब पहले देखते हैं कि इंद्रियों को अल्प वनवास पर कैसे भेजना है। इस अभ्यास से आपका शरीर और इंद्रियाँ प्रशिक्षित होकर लक्ष्य प्राप्ति में सहयोग करेंगी। आइए देखें, आँख को कैसे वनवास पर भेजा जा सकता है।
आँख का अल्प वनवास
आँख को शरीर की इनपुट डिवाइस या युक्ति कहा जा सकता है। इनसेे देखी गई जानकारियाँ, दृश्य हम अपनी मेमरी (स्मृति, मस्तिष्क) में स्टोर करते हैं। हम जिस स्तर की जानकारी या दृश्य ग्रहण कर रहे हैं, हमारे विचार, हमारा चिंतन, हमारी सोच वैसी ही बनती है। हमारा पूरा व्यक्तित्व ही वैसा बनता है।
जो लोग जरूरत से ज्यादा न्यूज चैनल देखते हैं, अखबार पढ़ते हैं, वे अपने विचारों और चिंतन की गुणवत्ता (क्वॉलिटी) कम करते हैं। ज्यादा न्यूज सुनने से उनके विचारों में दुःख, गुस्सा, निराशा, असुरक्षा, अविश्वास आदि नकारात्मक भाव रहने लगते हैं और उनका व्यक्तित्व भी वैसा ही बन जाता है। क्योंकि न्यूज में ज्यादातर नकारात्मक घटनाओं जैसे चोरी, भ्रष्टाचार, लूट-पाट, दुर्व्यवहार या मायावी जगत की बातें ही होती हैं।
यदि आपके साथ भी ऐसा हो रहा है कि बाहरी दुनिया (दिखावटी सत्य) की देखी-सुनी बातें आपके जीवन की गुणवत्ता को प्रभावित कर रही हैं, आपकी चेतना कम कर रही है और आप ऐसा नहीं चाहते तो यही समय है आपको अपनी आँखों को अल्प वनवास देना है। इस तरह –
- हानिकारक सीरियल, प्रोग्राम और न्यूज को तो तुरंत ही पूरी तरह से वनवास पर भेज दें अर्थात उन्हें देखना बंद कर दें।
- व्यर्थ या अनुपयोगी प्रोग्रामों में से कम से कम कुछ की तो कटौती करें। यदि आप पूरे साल का हिसाब लगाकर देखें कि पूरे साल एक व्यर्थ के सीरियल को देखने में आपने कितना समय गँवाया तो आपको वाकई स्वयं पर खेद होगा। अतः यदि आप दिन में चार सीरियल्स देख रहे हैं तो कम से कम दो को तो वनवास दें।
- यदि आपको किसी अनुपयोगी सीरियल की कहानी या प्रोग्राम से बहुत ज्यादा चिपकाव है और आप चाहकर भी स्वयं को उसे देखने से रोक नहीं पा रहे हैं तो एक काम करें, सीरियल को पूरी तल्लीनता से बैठकर देखने के बजाय कुछ काम करते हुए, चलते-फिरते हुए देखें। पूरा एपीसोड छोड़ने के बजाय कुछ दृश्य छोड़ने से शुरुआत करें। फिर आप कभी-कभार जैसे सप्ताह के एक-दो एसिसोड छोड़ेें। ऐसा करने पर आपका वह समय पूरा व्यर्थ नहीं जाएगा। ऊपर से पूरा ध्यान न देने पर आप उतनी फिजूल जानकारी ग्रहण नहीं करेंगे, जितना पूरा ध्यान से देखने पर करते हैं। साथ ही आपका उससे चिपकाव भी दूर होगा।
कान का वनवास
जब तक इंसान को वास्तविक आनंद (सत्य, स्वअनुभव) का अनुभव नहीं होता तब तक वह झूठी और क्षणिक खुशी को ही असली खुशी समझ बैठता है। वह परनिंदा, गप्पे लड़ाने, इधर-उधर की फालतू बातें, हँसी-ठिठोली करने, किसी की खिंचाई करने, किसी पर ताने कसने जैसी बातों में ही सुख खोजता है। जब दो लोग मिलकर किसी तीसरे की चर्चा या बुराई कर रहे हों तो उसे सुनने में हमारे कानों को बड़ा रस मिलता है।
जबकि किसी की निंदा सुनना भी उतना ही हानिकारक हो सकता है, जितना निंदा करना। क्योंकि वे शब्द आपकी चेतना पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। यही वह समय है जहाँ पर आपको सजग होेकर अपने कानों को वनवास पर भेजना है। इसके लिए निम्न बातों को अमल में लाएँ।
- ऐसी जगह से हट जाएँ जहाँ परनिंदा, नकारात्मक चर्चा, चुगली, चीप-टॉक चल रही है। यदि आपका मन स्वयं को रोक नहीं पा रहा है तो उसे अपना अंतिम लक्ष्य दृढ़ता से याद दिलाएँ।
- कुछ लोग मित्रों की ऐसी संगत से हटना मुश्किल मानते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ऐसा करने पर उनके मित्र बुरा मान सकते हैं या उनका मजाक उड़ा सकते हैं। ऐसे समय में आप विनम्रता से या कोई बहाना बनाकर वहाँ से हट सकते हैं। बेहतर तो यही होगा कि फालतू की बात करनेवाले अतेज मित्रों से समय रहते एक निश्चित दूरी बना ली जाए। फिर भी यदि आप कुछ ऐसे लोगों से अपनी मित्रता जारी रखना चाहते हैं तो आप उन्हें समय से यह स्पष्ट कर दें कि आप इस तरह की किसी भी सस्ती और नकली खुशी को पसंद नहीं करते। जब उन्हें यह स्पष्ट हो जाएगा तो वे स्वयं ही इस बात का ध्यान रखेंगे कि वे आपके सामने ऐसी कोई बात न करें और यदि करते भी हैं तो आपका वहाँ से हटना सहज हो जाएगा क्योंकि आपने उन्हें पहले ही स्पष्ट किया हुआ है।
- मान लीजिए, किसी को अभी लक्ष्य पाने में उतनी दृढ़ता नहीं है कि वह ऊपर बताई बातों को पूरी तरह से अपनाएतो कोई बात नहीं। पूरा अपनाना मुश्किल है तो थोड़े से शुरुआत करें। यदि एक घंटा फोन पर गप्पे लगाते हैं, यदि आधा घंटा परिचर्चा या परनिंदा करते हैं तो उसे 5-10 मिनट तो कम करें। यह ध्यान रहे कि ये सब आप किसी दूसरे के लिए नहीं बल्कि अपनी भलाई के लिए ही कर रहे हैं।
जुबान का अल्प वनवास
जुबान इंसान की अति महत्वपूर्ण इंद्रिय है। इससे दो ऐसे पहलू जुड़े हैं, जो हमारे जीवन पर बहुत गहरा असर डालते हैं। ये हैं- शब्द और स्वाद। इन दोनों की अति इंसान को अनेक समस्याओं में डाल सकती है।
पेट और स्वाद का वनवास: अच्छे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए पेट और स्वादेंद्रिय को अल्प वनवास पर भेजना बहुत आवश्यक है। हमारे पूर्वजों, महान विचारकों ने इस महत्वपूर्ण बात को नियम-परंपराओं में पिरोकर धर्म-संप्रदायों का हिस्सा बना दिया था ताकि यदि खान-पान संबंधी जरूरी समझ नहीं है तो भी लोग अवश्य ही इनका पालन करें और स्वस्थ रहें। इसीलिए आपने देखा होगा कि हर धर्म-संप्रदाय में पेट और स्वाद के वनवास को उपवास, व्रत, रोज़ा आदि नाम देकर शामिल किया गया। साथ ही ऐसे नियम भी बनाए गए कि फलाँ दिन चावल नहीं खाना चाहिए, फलाँ दिन नमक का सेवन न करें, नवरात्र में अन्न का सेवन न करें, सूर्यास्त के बाद भोजन न करें, फलाँ दिन एक ही समय भोजन करें आदि।
शब्द का वनवास: स्वाद के बाद जुबान से जुड़ा दूसरा पक्ष है शब्द यानी हमारे बोल, हमारे संवाद। हम अपनी भावनाओं, विचारों को शब्दों द्वारा व्यक्त करते हैं। यदि हमारी जुबान से निकले शब्द अर्थपूर्ण, मीठे, विनम्र, दूसरों को प्रिय लगनेवाले, हितकारी, स्पष्ट और संक्षिप्त हैं तो ये हमारी ताकत हैं, हमारे मित्र हैं। मगर जब शब्द बेकार, अर्थहीन, दूसरों को कष्ट देनेवाले, दूसरों का अहित करनेवाले और जरूरत से ज्यादा होते हैं तो वे हमारी कमजोरी हैं, हमारे शत्रु हैं, जो हमारे अपने होते हुए भी हमारा सबसे ज्यादा नुकसान कर बैठते हैं। इससे बचने के लिए शब्दों को इस तरह वनवास दें –
- निंदा, ताने, दूसरों का मजाक उड़ाने, चुगली, बुराई, कान भरनेवाले, झूठेे शब्दों को तुरंत वनवास दें।
- फोन पर बात करते हुए, मित्रों से गपशप लड़ाते हुए, कुछ शब्दों और वाक्यों को अवश्य वनवास दें। बातों को संक्षिप्त में करना सीखें।
- जब आपको क्रोध आ रहा हो या कोई आप पर क्रोध कर रहा तो अपने शब्दों को तुरंत वनवास दें। क्योंकि इन दोनों स्थितियों में आपके मुँह से निकले शब्द आपका एवं सामनेवाले का अहित कर सकते हैं। आपको बाद में उन पर पछताना भी पड़ सकता है।
- हो सके तो किसी एक पूरा दिन या दिन के एक पहर मौन में रहने का अभ्यास करें।
त्वचा का वनवास
बाकी इंद्रियों की तरह त्वचा का भी वनवास निर्धारित किया जा सकता है। वनवास का यहाँ असली अर्थ यही है कि आपको जिन चीजों की, जिन सुविधाओं की आदत हो गई है, जिनके बिना आपका गुजारा नहीं होता, कभी-कभी उनके बिना रहकर देखना। ताकि आपको पता चले कि आप उन चीजों पर कितने निर्भर हो चुके हैं। जाने-अनजाने आपने कैसी-कैसी आदतें बना ली हैं, जो आपका बंधन बन चुकी हैं। जब तक बंधन का पता नहीं चलेगा तब तक उससे मुक्तकैसे होंगे।
आइए, देखते हैं त्वचा के वनवास में क्या-क्या प्रयोग किए जा सकते हैं। त्वचा किन-किन चीजों की डिमांड करती है, उसमें क्या कटौती हो सकती है।
- आपकी त्वचा जिन-जिन सौंदर्य प्रसाधनों की आदी है, एक दिन उन्हें विश्राम दें। एक दिन बिना मेकअप के रहकर देखें।
- त्वचा को थोड़े विपरीत माहौल में रखें। जैसे यदि ए.सी. की हवा की आदत है तो एक दिन बिना ए.सी. के रहें। यदि त्वचा को गरमी बरदाश्त नहीं होती तो भी कुछ समय बगैर पंखे, ए.सी. के रहकर देखें। याद रखें श्रीराम को वनवास में ऐसी कोई राजसी सुख-सुविधा नहीं थी। फिर भी उन्होंने स्वयं को उस माहौल के अनुकूल बनाया।
- अगर कभी बारिश में नहीं भीगे तो एक बार बारिश में जरूर नहाकर देखें। अगर हमेशा गरम पानी से नहाते हैं तो कभी-कभी ठंढे पानी से नहाकर देखें।
- अपने सोने की जगह, तकिया, बिस्तर आदि बदलकर देखें कि नींद पर क्या असर होता है।
- सालों से त्वचा के लिए उपयोग करते आ रहे प्रसाधनों को बदलकर देखें। जितने प्रसाधन, घड़ी, अंगूठी आदि उपयोग कर रहे हैं, उनकी संख्या कम करके देखें।
- यदि हमेशा जूते-चप्पल पहनकर चलते हैं तो कम से कम लॉन या पार्क में टहलते हुए नंगे पैर चलकर देखें।
इस प्रकार त्वचा की जरूरतों को कम कर और उन्हें बदलकर त्वचा पर वनवास का प्रयोग किया जा सकता है।
साँस का अल्प वनवास
साँसें शरीर का प्राण हैं। साँसों से ही हमारे शरीर के प्रत्येक अंग को, प्रत्येक कोशिका को जीवन ऊर्जा (प्राणवायु) प्राप्त होती है, जो हमारे जीवन के लिए आवश्यक है। इसीलिए साँसों को प्राण अथवा प्राणमय शरीर भी कहा गया है। साँसें हमारे स्थूल शरीर और मन को जोड़नेवाली कड़ी है।
इस तरह से देखा जाए तो यदि हमारा मन परेशान है, तनाव या चिंता में है, व्याकुल या अनियंत्रित है तब यदि हम अपनी साँसों पर ध्यान देकर उन्हें नियंत्रित कर लें। अर्थात गहरी और लंबी साँसें लें तो हमारा मन भी शांत होगा।
साँसों के वनवास काल में आपको यही करना है। दिन में किसी निर्धारित समय पर या बीच-बीच में जब भी याद आए, कुछ साँसों को वनवास देना है। अर्थात दिन में कुछ साँसें गहरी और लंबी लें। इससे आपकी प्रति मिनट साँस लेने की दर कम होगी। क्योंकि एक लंबी साँस ली तो वह दो-तीन साँस के बराबर होगी। इस तरह से दो साँसों को समझें, वनवास हो गया। सामान्यतः एक स्वस्थ इंसान प्रति मिनट 15 साँसें लेता है। साँसों की संख्या इस दर से जितनी ज्यादा है, समझिए इंसान मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य से उतना ही दूर होता जा रहा है। यदि दर कम है तो इंसान अपेक्षाकृत अधिक शांतचित्त और स्वस्थ है।
गैजेट्स का अल्प वनवास
संचार (कम्युनिकेशन) मनोरंजन, वीडियो गेम्स, इंफॉर्मेशन प्रोसेसिंग, मास मीडिया, सोशल नेटवर्किंग मीडिया आदि अनुप्रयोगों (अॅप्लीकेशन) के लिए बनी इलेक्ट्रॉनिक या मैकेनिकल उपकरणों को गैजेट्स कहा जाता है। मोबाइल फोन, कंप्यूटर, लैपटॉप, टैबलेट, पी.सी., आयफोन, आयपैड, वीडियो गेम्स, प्ले स्टेशन आदि ऐसे ही गैजेट्स हैं। दूरसंचार, इंटरनेट सर्फिंग, चैटिंग, फेसबुक, ट्विटर, वॉट्स अॅप, मोबाइल गेम्स आदि ऐसी कितनी ही अॅप्लीकेशन हैं, जो आज हमारे दैनिक जीवन का अंग बन चुकी हैं, खासकर युवा पीढ़ी के लिए।
गैजेट्स फ्री डे निर्धारित करें: जब सजगता और प्रयास द्वारा आपकी गैजेट्स पर निर्भरता कम होगी और आप उससे कुछ समय के लिए दूर रहना सीख लेंगे तो इसके बाद एक कदम और आगे बढ़ाएँ। सप्ताह में या महीने में, जैसी आपकी तैयारी हो, एक दिन गैजेट फ्री डे रखें। यानी एक दिन गैजेट को पूरी तरह से वनवास दें। यदि एक दिन सभी गैजेट को एक साथ वनवास नहीं दे सकते तो एक दिन किसी एक गैजेट के लिए निश्चित करें। जैसे, ‘सोमवार को मैं पूरा दिन टी.वी. नहीं देखूँगा, मंगलवार को सोशल नेटवर्किंग नहीं करूँगा, बुधवार के दिन कोई भी गैरजरूरी फोन नहीं करूँगा’ आदि।
साल 2014 में हर महीने कम से कम 14 तारीख को गैजेट्स मुक्त दिन के रूप में मनाएँ। इस तरह से आप गैजेट्स के मायाजाल से आसानी से मुक्त हो सकेंगे और उसके नुकसान से बच सकेंगे।
इन प्रयासों से आपकी संकल्प शक्ति एवं आत्मबल भी बढ़ेगा, जिसका लाभ आपको आध्यात्मिक उन्नति में भी मिलेगा।
…सरश्री
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